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________________ प्या०० टीका-हिन्दी विवेचना ] । इति पग्रेऽपि प्रतिपद्यमेवं मदीयम्पिनष्टीयं पिट भवनियमिद्भिव्यमितिः स्वभावाद भूताना मितसमयदेशस्थितिगिति । अग्रे । केयं प्रान्तिः सनतमपि तव्यमनिमा पृथा ययापागे जगति जगदीशस्य कथिमः ॥२॥ इति दिग । अत एचाऽनिमाण्यप्यनुमानान्यपाम्सानि । वि., पीयानुसार शासन लादल्यापादिपर ये साध्यामिद्धिः, घटादिपरस्बे पटादों मंदिन्धानकान्तिकत्वम , म्बोपादानगोचरत्वादिनाऽपाततोऽपि हेनुस्वाभावतोऽत्यप्रयोजकत्वं च । तती ये बानेन्मापदोपादानप्रयासः। चतुर्थे सऽरिया एवं प्रनि पक्षाऽसिद्धिः। तो सपछले विरोध में नैयायिक के प्रति मायाकार पूज्यशोविजयी महारान इस माश्य का अपना पत्र प्रस्तुत करना चाहते हैं कि-नियत देश और निमतकाल में भर्गों के जन्मादिको व्यवस्था बामा धक है । अतः जगत में होमेवारी कार्यों की उत्पत्ति आदि के नियमों को उपयप्ति के लिये हवचरको मित करने का हवाम विषेषण मानमतः निरन्तर काही व्यसन करमेव यायिकों को पद एक कसा भ्रम है कि वे समाव सिज व्यवस्था के लिये जगदोश के व्यय व्यापार का समयन करते हैं।' [ इंपवर साधक शेषानुमानों को दुर्बलता ] 'कामं समर्पक कार्यवान ईश्वर सिद्धि के इस प्रथम प्रनुमान में जिस प्रकार के दोष बताये गये हैं उसी प्रकार के वोपों के कारण अग्रिम अनुमामों भी निरस्त हो जाते है। अग्रिम अनुमानों में दूसरे नये शोष भी दे । जसे रोगगवानगोचर एव स्वजनकादष्ट के अजनककृति से अजन्य समवेत अन्य में-बापादान गोचर एव नकाइष्टको अजनक अपरोक्ष जान चिकोष जन्यत्व का अनुमान पूषा ईपपरानुपान है . रा अनुपान में यदि माय के शारीर में स्वपन से प्रचणकाधि का प्रहार किया जायगा को बचणकाहि उपादान का अपरोक्षजानामि सिम होने से साध्यातिथि दोष होगा। यदि गव से घटादिका पहण किया जाणगा तो पटावि में कार्यन्व हेतु सस्विप कान्तिक होगा, क्योंकि पटावि में घटा के उपादान को विषम करने वाले अपरोक्ष आविज्ञान की माता सविग्य है इस अनुमान में अप्रमोमकस्य दोष भी है. मयोंकि घदापि कार्यों के प्रति कालाब के अपोक्षारत को कपालगदिगोत्रस्य रूप से ही कारणता होती है स्वोपावामगोचरस्वरूप से नहीं । अत: स्वोपावागोवरण रूप से कारगना न होने से अप्रयोगकाप कोष का होना अपरिहा है, क्योंकि ग्रह का निर्विवाद रूप से की जा सकती है कि जिम कार्यों में प्रस्तुत मायका अनुमान करना हैं कार्य होते हए मो सदोषावान पोखरस्वरूप से अपरोक्षजानादि से जन्य-वसी प्रकार नहीं हो सकते जिन्न प्रकार घटादि ही स्योपादान गोचरस्वरूप से अपरोक्ष प्रामावि से जाम नहीं होते'-और इस शाहका का कोई परिहार नही है। बिर का तीसरा अनुमान यह है कि ब्रम्य विशेष्यता सम्बम्ब से शान, या और कृति से युगत है, क्य कि उन में समवाम सम्बम्ब से कार्य होता है। जैसे कपाल में समवाय सम्माध से घटरूप कार्य के होने से वह वियोग्यता सम्बन्ध से कुलाल के शान, इच्छा और कृति से पुक्त होता है। मनुमान में साध्य पोषक दिमाग में कान और इच्छा पका पादान लिएर्षक है क्योंकि विशेष्यता
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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