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________________ [ शा. वा. समुच्चयल०३-रलो । पञ्चमे त शिन्यादायक कत्वस्यैव न्यबहाराइ बाधः । विशेषान्वय-व्यतिरेकाम्यो कनस्वेन कार्यसामान्य एव हेतुत्वग्रहान बाध' इति चेत् ? महिं शीरचेष्टयोरप्यन्त्रयनिरेकामा कायंसामान्यहेतुन्याच साप निपयोगीश्वरं प्रमाक्तः । अथ 'नित्यागर्गमप्यत एव भगवतः । नत्र 'परमाणन एवं प्रयत्नवदीश्वगत्मसंयोगाधीनचेष्टावन्त ईश्वरस्य शरीगणि' सम्बन्ध से केवल कृति का अनुमान करने पर भी उसके प्रारूप में ईर यी अभिमान मिद्धि हो समतोक्योंकि विधा में संपणं काया के उपाय करनेवालो कति सिट ॥ने पर ससकेकारा पान और एका षक अनुमानो जाने से सपणं कायं के क सर में सपर्णकायो के उपादान का मान और उसके उपाबानों में चिकीर्षारूप दमछः को सिद्धि होकर ईयर में सवंताधि की सिद्धि हो सकती है। (४) संग के भारम्न काल में विद्यमान नध्य बिमोध्यता सम्बन्ध से ज्ञाननाम क्योंकि उसमें समवायसम्बध से काम होता है यह पक्षमा मगे के आरम्भकाल में इम्य में सानप साक्ष्य के साधन द्वारा ईश्वर का सापक नौथा धनुमान है। इस प्रनुमान में मोमासकाधिको दृष्टि से पक्षाऽमिति रोष है। क्योंकि उनके मत में सर्ग का आरम्मकाल असिद्ध है। वा प्रदुगाल में लाभ दो । "क्षिप्पादि कार्य समान कई क्योंकि यह कार्य है.यह अनुमान प्रकृत विचार के प्रयोजक विवादले विषाल्य कामे मित्यादि को पक्ष रूप में विषय कर सकत्व के साधन द्वारा ईश्वर का साषा यांखदा अनुमान है। इस अनुभान में बाघ दोष है क्योंकि क्षिरयावि में लोकव्यवहार से अमर्तृत्वही सिद्ध है। यदि यह कहा जाय कि-'घावि विशेष काषं ओर कुलालादितिशेष कर्ता के अवय-मयतिरेक से घटाव विशेष कार्य के प्रति कुलालादि विशेष कर्ता कारण है, कंवल तिमाही सिबम होकर सामान्य रूप से कार्यमान के प्रति सामान्य रूप से का कारण होता है। यह भी सिद्ध होता है। अतः इस कार्यकारणमाद के विरोधी क्षियावि में अकर्तृ करव के सबहार को यथार्थ नहीं मामा जाला । इसलिये इस अनुमान में माष बोष नहीं हो सकता तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर घाव कार्य और कुलाल का पारीर एवं कुलाल की श्रेष्टा आदि के अन्ज्य-व्यतिरेक से का सामान्य के प्रति सामान्य र ते शरीर और देष्टा की भी कारणता सिब होती है और इस कार्यकारण माव के आधार पर सिर में नित्य शरीर और नित्य चेष्टा की मी प्रमक्षित हो सकता है। इस सम्बन्ध में यदि यह कहा जाय कि-भगवान को नित्य शरीर होना इष्ट ही है। इसी लिये कुछ लोगों को यह मान्यता है कि परमाण हो स्वर के शारीर हैं कि हममें घिर के प्रयान से चेष्टा उत्पन्न होती है और यह नियम है कि बिम पुरुष के अयस्त से निप्तमें चेष्टा उत्पन्न होती है बजस पुरुषका शरीर होता है। यह शासठया कि प्रयत्न समवाय सम्बन्ध में पुरुष में galta किशरीर में 1 अत: व समवाय सम्बन्ध से शारीर में चेष्टाका उत्पादक न होकर स्वाश्रय संयोग सम्बम्ब से वेष्टा का उत्पादन होता है । सका अर्थ है प्रयम-उसका आश्चय होता है अमरमा और उसका संयोग होता है शारीर में, अत: उस संयोग केरा प्रयत्न को उस शरीर में पेष्टा को उत्पन्न करने में कोई बाधा नहीं होती। दूसरे विद्वानों का कहना है केवल बायु के परमाणु ही विवर के धारीर है क्योंकि उनमें ईश्वर प्रयत्न से किया वेष्टा का उवय सवैध होता रहता है। प्रत एवं उन्हें
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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