________________
स्या
टीका-हिन्दी विवेचना ]
प्रत्येके । 'बायपरमाणव एव नित्यक्रियायन्तस्तथा, अत एव तेर्या सदागतित्वम्' इत्यन्यं । "आकाशशरीरे ब्रह्म''इति भ्रने 'आकाशम्सकहरीरम् इत्यपरे । चेष्टाया नित्यन्ये तु मानाभाया, निन्यज्ञानसिदी त अनिरपि पनपातिनी "नित्यं विज्ञानं." इत्यादिकाः, अन एव ज्ञानवानछे देनाऽऽन्म-मनोयोगजन्यत्वं न बाधकमि नि चेतन, ईश्वरबन्धस्य क्षेत्रावशेषण इदमरवशिरीरम' इति नियमाऽयोगान, चेष्टाया अपि वानवंदेकम्पा नित्यायाश्च स्वीकारीचित्पात, उक्तचनेम्वदभिमतेश्वरमशानास्पक्षपातित्वाच, अन्यथाऽऽनन्दोऽपि तत्र मिध्यंत ज्ञाना-नन्दमेदश्चेति दिग् ।
आयोजनापपि नेश्वरसिद्धिः, ईश्वराधिष्ठानस्य सर्वदा सुचेय दृष्टविलम्यादेवा:या. क्रियाविलम्चात् तत्र तद्वेगवावश्यकत्वात । दृष्ट कारणसच्च एवाइष्टविलम्बन कार्याविलम्बात् .
मवासियोल मोकहा आता है। कुछ दिनुानों का यह मत है कि भाकामा वरार ब्रह्म'म भूति के अनु सा आकाश ही ईश्वर का शरीर है और वह नित्य है । इस प्रकार विधामों की दृष्टि में ईश्वर का निस्य शारीर संयुक्न होना युक्तिसत है।हां उसमें प्रिय चेटा का अभ्युपगम नहीं किया जा सकता है क्योंकि बेटा की नित्यता में कोई प्रमाग महीं है । चटा के समान ज्ञान में अनित्यता की सिद्धि नाता जा सकती क्योंकि नाम की नित्यमा 'निय विनानमानावं वा इत्यादि शुतियों से सिस है। हमलों के कारगहो संपूर्ण ज्ञान में आम मनोयोग की जन्यता को बाधक नहीं माना जा सवासा, क्योंकि संपूर्ण बात को धारममनोयोगजन्य मानने में ये श्रतिमा ही बाधक है 'तो यह कथन मोटोक नहीं है वोंकि ईश्वर के विभु होभे से उसका सम्बन्ध सभी द्रव्या में समान रूप से विद्यमान है अत: यह माना-परमाण हो अथवा बायु परमाणु ही या आफाश हो ईश्वर का सागर ईटीक नहीं हो सकता । इसी प्रकार शान के समान एक नित्य चेष्टा की करूपमा भी धित हो सकती है। क्योंकि जैसे जीवों में मानक अनित्य होने पर मोर में लाघय की मसि एक मित्यमाम की कल्पमा होती है उमी प्रकार जीवों के अनित्य शरीर में अनित्य पेष्टा होने पर भी पवर के नित्य शरीर में एक नित्य चेटा मानने में कोर वाषा नहीं हो सकती। बेष्टा मोर मात की असमानता बताते हए तान को नियता में आधुति प्रमाण रूपमे प्रसिडकोगा? सग से ईश्वर में यायिक के मतानुसार मान को लिदिनहर हो सकी पोंकि बहति ईश्वर में झान के क्षेत्र का प्रतिपादन करती है म कि शामकी आश्रयता का। यदि जमने बिर में ज्ञान को मिशिहोगी तो उसी से ईश्वर में मानव को भी सिद्धि हो सकती हैं जो नवाधिकों को मान्य नहीं है। एवं उस भूमि में जाम और प्रामन्याय का पृथक उपासान होने से कान और आम का मेद भो सियशोगा । जब कि घर में मान से भित्र आन्त को सता नवाधिकों को मायमही है।
(प्रष्ट से हो पायपरमाणक्रिया को उपपत्ति) ।६सायोजन='प्रथम उपाक के बारम्भक संयोग को अस्पन्न करनेवाले परमाणुकर्य' से भी ईश्वर किसिशि नहीं हो उसकती, क्योंकि मत कम में प्रयनारस का मनुमान कर उस प्रयान के आभयरूप में हो सबरही सिद्धि की जाती है। किन्तु उक्त कमे में शिरप्रयत्नजन्मस्व मानमा संभव नहीं