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________________ ६. ] [ शा.पा. समुरूषय१०३-लो। अष्टस्य दृशघातकत्वात् , बेष्टावस्याऽनुगतत्वेनोपाधित्वात्र । तदवनिमम एव हि जीवनयन्नव्यावृत्तेन प्रवृत्तिवेन गमनत्यादिव्याप्यत्वे तु विलझणयत्नत्वेनैष हेतुत्वात् क्रियासामान्ये यत्नत्वेन हेतुल्वे मानाभातात , 'यद्विशेषयोः' इत्यादिन्याय मानाभावात् । है क्योंकि उक्त कर्म को उत्पत्ति नियत सपा में ही होती हैं। पवि ईश्वर प्रयत्न से उसको उत्पति मानी जाय तो उस में प्रश्नवान ईश्वर का सदैव सयोग होने से नयतकाल में हो उसकी स्पति न होकर पूर्वकाल में भी उस की उत्पत्ति की आपत्ति होगो । अतः भादल विसम्म से ही परमाणुगत पाच कर्म की उत्पत्ति में विलम्स मानना होगा। ओर वह तभी हो सकता है कि अब अपृष्ट को उस कर्म का कारण माना जाप । और जब अदृष्ट उस फर्म का कारण होगा तो बसोमे उसकी उत्पत्ति सभव हो जाने के कारण उसके प्रति ईश्वर का प्रयत्न कारण न हो सकेगा। यदि यह कहा जाय कि-'अष्ट के विलम्ब से कार्य का विलम्ब अप्रमाणिक है क्योंकि कार्य के इष्टकारणों के उपस्थित होने पर अदष्ट के विना से कभी भी कार्य में विलम्व नहीं देखा जाता'-तो यह ठोक नहीं है क्योंकि जिप्त कार्य जो जो रप्त कारण प्रमाणसिट होते हैं उन सभी कारणों के रहने पर ही अदृषट के विलम्ब से कार्य में विलम्ब होना अप्रमाणिक है क्योंकि यदि उस कशा में भी अरष्ट के बिलम्ब से काय यशोगाउासा के हो धन मे से रष्ट कारणों का विघात हो जायगा : अब कि अष्ट से इष्ट कारणों का विधान किसी को भी मान्य नहीं है। अस: जिस कायं का कोई सार कारण सिद्ध नहीं है कि जिसके विलम्ब से बस कार्य की अस्पति में विलम्ब हो सके तब भी उस कार्य की उत्पत्ति में मौ यदि विलम्व होता है तो उसे अष्ट के विलम्ब ही उपपन्न करना होगा । परमाणु के आय कमका कोई ऐमा अप्टकार मित नहीं है कि जिस के विलम्स से उस की उत्पत्ति में विलम्ब मामा नाय | बत: अरष्ट के विलम्ब ही उस की उत्पत्ति में विलम्व मानना होगा, इस प्रकार नियत समयमें कार्योन्मुख होने वाले अष्ट हो निकाल में परमाणु के आध कर्म की उत्पत्ति का संभव होने से उसके कारणरूपमें ईश्वरप्रयत्न को मिति नहीं सकती। इम के अतिरिक्त प्रस्तुत अनुमान में खेष्वास्थ उपाधि भी है क्योंकि सनसम्म समी कर्मों में बेवाल्वरूपएक अनुगत पम रहता है और कर्मत्वरूप साधन के आश्रयमूत चतुकाराम्भक परमाण के आशाम में नहीं रहता है अतः यह कर्मभ्वरूप माधन से अपमिदना विशिष्ट प्रयत्नान्यत्वरूप साध्य कायापक और कर्मस्वरूप साधन का अग्यापक उपाधि है। प्रस्तुत अनुमाम इसलिए भी नहीं हो सकता कि वह क्रिमासामाग्य और प्रपन्नतामाग्य के जिस कार्यकारणभाव को प्रथीम है उस कार्धकारमभाव में कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि क्रिया को पोपों में यौटा जा सकता. से जीबमयोनियन जोवराहण्टकारणक प्रयरम' से होने वाली प्राण अपामारको नियाएं और अन्य प्रयत्नों से होनेवाली चेष्टात्मकत्रियाएँ जम में प्रपासवर्ग की निया के प्रति जीवन-पोमि ग्रस्न ही कारण है और द्वितीयवर्ग को किया नोटा के प्रति प्रति कारण है। नितीयवर्यको क्रिया को कारणता का अवाशेवरुभूत प्रवत्तित्व जीवायोमि से मित्र समी यस्नों का प्रम है। अत एक प्रकृति को वितीपवर्ग की समस्तक्रियाओं का कारग मानने पर पलायन मावि किमामो में उसका स्थरिचार नही हो सकता क्योंकि पलायनावि किया जिस प्रयास से होती, बहमी प्रवृत्ति नामक प्रमल के अन्तर्गत आ जाता है। यदि वितीय वर्ग की हयाम को पमनावि
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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