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स्वाक टीका-हिन्यचना ]
"निरालम्बा निराधारा विश्वाधारा
विन्!"
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युक्तं चैतत् ईश्वग्प्रयत्नस्य व्यापकत्वेन समरेऽपि शरपाताऽनापतेः । पतनाभावावछिन्नेरयत्नस्य तथान्ये तादृशज्ञानेच्छास्यां दिनिगमनाविरहात् क्लुप्नजातीयस्यादृष्टस्यैव श्राधारकत्वकल्पनौचित्यात् । न श्रात्माऽवित्ववादिनः संबन्धानुपपत्तिः, अचापि सन्कार्यजननशक्तस्य तत्कार्यकारित्वात अयस्कान्तस्याऽसंबद्धस्यापि लोssकर्मकत्वदर्शनादिनि अन्यत्र विस्तरः । प्रयत्नस्य तु विलक्षणप्रयत्नत्वेन पतनप्रतिबन्धकसंयो विशेष एवं हेतुम् |
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कारणाभावप्रयुलर का अनुमान करके भी ईश्वर की सिद्धि नहीं की जा सकती क्योंकि ब्रह्माण्ड की पति में भी अप्रयुक्त होने से उस में प्रयुक्तत्व विशेषणविशिष्ट उक्ल अपितु स्वरूपासिद्ध हो जाता है ।
इसीलिये श्रीचन्द्रसूरि कहा है कि विश्व की आधारभूत पृथ्वी बिना किसी श्रालम्बन और प्राभार fret एक निश्चित स्थान में स्थिर रहती है। वहां से उसका पतन नहीं होता उस में धर्म से प्रतिरिक्त और कोई कारण नहीं है। इस प्रकार प्रा श्रुति के धर्म रूप ष्ट से प्रयुक्त होने के कारण उसमें मुक्लत्वविशिष्ट उक्त धृतित्वरूप हेतु की स्वरूपाऽसिद्धि निषिधाय है । यही बिसगत भी है. क्योंकि यदि ईश्वर प्रयत्न को ब्रह्माण्ड पतन का प्रतिबन्धक माना जायगा तो व्यापक होने के कारण यह सङ्ग्रामभूमि में भी रहेगा। धतः उस भूमि में सैनिकों द्वारा प्रक्षिप्त बाणों का पतन भी न हो सकेगा क्योंकि ईश्वर का जो प्रयत्न के पत्र को रोक सकता है यह सामान्य बारा के पतन को क्यों न रोक सकेगा? यदि यह कहा जाय कि प्रतियोगिव्यधिकरण वसनाभाव विशिष्ट ईश्वर प्रयत्न सो पतन का प्रतिबन्धक है। अतः ईश्वरप्रयत्न से याण के पतन का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता । क्योंकि बाण में प्रतियोगिव्यधिकरणपलनाभाव नहीं रहता । ब्रह्माण्ड का कभी भी पतन न होने से उम में प्रतियोगिव्यधिकरपपलमाभाव रहता है । अतः एव ब्रह्माण्ड में प्रतियोगीध्यधिकरणवसमा भाष विशिष्ट ईश्वर प्रयत्न के रहने से वह ब्रह्माण्ड के पतन का प्रतिबन्धक हो सकता है तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि प्रतियोगिव्यधिकरणतमाभावविशिष्ट प्रयत्न श्रह्माण्ड के पतन का प्रतिप्रत्यक हो उस में कोई विनिगमनात्र होने से प्रतियोगिव्यधिकरणवतना भावविशिष्ट ज्ञान पर को
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प्रतिबन्धक मानना श्रावश्यक होगा । इसलिये ज्ञान का प्रयत्न ये सीम को ब्रह्म के पतन का प्रतिक मानने की अपेक्षा अष्ट को हो ब्रह्माण्ड के पतन का प्रतिबन्धक मानना उचित है, क्योंकि अष्ट में जीवित शरीर के पतन की प्रतिबन्धकता सिद्ध है। अतः एवं ष्ट में पतनप्रतिबन्धकत की कल्पना नहीं है । यदि यह कहा जाम कियाण्ड का धारक नहीं हो सकता क्योंकि प्रष्ट जीबात्मा में रहता है। प्रतः जिस मन में जोवारमा विभु नहीं होता उस मत में जीवात्मा में रहमेव से घट का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड के साथ नहीं हो सकता और जब ब्रह्माण्ड से प्रष्ट का सम्बन्ध नहीं बन सकता तब उसे ब्रह्माण्ड का धारक कैसे माना जा सकता ?' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ओ जिस कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ होता है वह उस कार्य के उत्पति देश से सम्बद्ध होने पर मी