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स्या का टीका-हिन्दी विवेचना ]
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तत्प्रकारकमानमात्रस्य हेतुन्वात कथमुपादानप्रत्यनमीश्नरम्य । तस्यानुमिनिन्वे जन्यानुमितित्वं व्यापिकानजन्यनावन्द कमिति गौग्योहावनं तु अत्यन्मन्ने अन्यप्रत्यान्यस्यन्द्रियादिजन्यताकछेदफन्त्रकपनागौग्वं नातिशेते । अपि च, तदुपादानप्रत्यक्ष निराश्रयमेवाऽम्त, रविषगतकल्पनभिया त निन्यज्ञानादिकमपि फर्थ कल्पनीयम् ! अभिहितश्चायमचों 'बुद्धिश्वेश्वरस्य यदि नित्याच्यापिक्रवाऽम्युपगम्यते, तदा मेवाडचेतनपदाधिष्ठात्री भविष्यति, इति किमपन्तदाधारेश्वरपरकल्पनया ?" इत्यादिना अन्धेन सम्मतिटोकायामपि । माणु धादि का लौकिक प्रत्यक्ष सिल नहीं हो सकता क्योंकि स्विर इन्मियामि से रहित होता है। इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि जिस कार्य की इच्छा से जिस कारण में मनुष्य की प्रवृत्ति होती है उस कारण में उस कार्य का ज्ञान सामान्यरूप से हेतु होता है न कि उस कारण में उस कार्य का प्रत्यक्षज्ञान । क्योंकि यदि कारण में कार्य के प्रत्यक्षज्ञान को ही हेतु माना जायगा तो मन का प्रणधान -मन की एकाग्रता करमे के लिये मनुष्य की ममोबहनाडी में प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी क्योंकि मनो बहनाढी का उसे प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता । तो कार्यकारणभाव की इस स्थिति में ईश्वर में उपणुकावि के उपादान का प्रत्यक्ष न सित होकर केवल इसमाशी सिम हो सकता है कि ईश्वर में घणुकावि के उपादान कारण का ज्ञान रहता है। प्रतः ईशवर सर्वहनदा न सिद्ध होकर सबंजातर ही सिर हो सकता है।
सच मात तो यह है कि कार्य के प्रति उपावान कारा के नामसामान्य को कारण मानने पर प्रचणकाधि के उपावान कारण के जाप्ता इ.पमें भी बिर की सिद्धि मझी हो सकती, क्योंकि एक अमाग को समिट के समान अन्य पूर्वोत्पन्न ब्रह्माण्ड में विधमान योगी को किसी प्रधीन उत्पन्न होने. वाले ग्रह्माण्ड के अन्तर्गत विद्यमान परमाणुनों का योगजन्य ज्ञान हो सकता है और उसी शान से नपे ब्रह्माण्ड में वृषणकावि को उत्पत्ति हो सकती है। प्रत. ब्रह्माण्य ईश्वरकतृक न होकर योगिकतंक हो सकता है । इसलिये विश्वकतारूप में ईश्वर की सिद्धि की माशा चुराशा मात्र है। यदि यह कहा जाप कि-संपूर्ण बयाण्ड का एक साथ खा प्रलय होता है और बहु प्रलय की अवधि पूरी हो जाने पर नये ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है। प्रत; खण्ज प्रलमकाल में कोई योगी नहीं रहता इसलिये मये बह्माण में वृधमाविको उत्पत्ति परमाणों के योगिजान द्वारा समर्थित नहीं हो सकी। अतः घणुकावि के उपादानभूत परमाणुओं का झाम सृष्टि के मारम्म समय में हावर में ही मानना प्राधायक है और उसे प्रत्यक्ष रूप हो होना उचित है। क्योंकि अमिति रूप मानने पर मनुमितिरबको स्माप्तिज्ञान का जायत.वग्रेक नहीं माना जा सस्ता, बोंकि वह क्याप्तिकान से प्रजन्य वरीय अनुमिति में रहने के कारण क्याप्सिजानन्यताका प्रतिप्रसक्त धर्म है । अतः जन्यानुमितिरवको व्याप्तिकान का जन्यतावस्थेदक मानना पड़ेगा और उसमें गौरव होगा।"- नी यह कथन होकन क्योंकि ईश्वर मान को प्रत्यक्षारक मानने पर भी, ईश्वरीयमित्यप्रत्यक्ष में प्रियता मही है अत: इन्द्रिय जन्यता के प्रतिप्रसक्त होने से प्रस् प्रक्षरमको इन्द्रियजन्मता का अवरोधक न माना जा सकेगा किन्तु जयप्रत्यक्षरा को ही प्रम का जन्प्रसस्वरवा मानना होगा । प्रतः वरीयमाम की प्रत्यक्षरूपता का समर्थन उपसरीति से नहीं किया जा सकता।