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[ शा. त्रा, समुच्चय म्त :- Rोक
किडच, उपादानप्रत्यक्षम्य किकम्य हेतुन्यात कथमीश्वरे तन्मिद्धिः ? अपि च, प्रणिधानाद्यर्थे मनोवहनाइयादी प्रवृत्तिम्बीकाराद् यदावचिन्ने यप्रिनिः सद्धर्मापनिछाने
की कल्पमा अावश्यक है तो उसी प्रकार ईश्वरीय दण्डादि को मौ कल्पना करने की प्रासश्यकता पर सकती है सर्वाक ग्रह वात वर कटुंश्ववादो को भी मान्य नहीं है । प्रत: पाकस्थल में नवीन घट के उत्पावक नवीन कपालस्य संयोग को पूर्ववडप्रयोज्य मानकर स्वप्रयोज्यचिजातीय संघोग सम्बाघ से वयादि का अस्तित्व मानकर उस घर में वण्डादि जन्यता की उपपत्ति जिस प्रकार की जायणी उसी प्रकार लाल को पूर्वकृति जभ्यता को भी उपपत्ति की जा सकती है। प्रतः पाकस्थलीय घट की उत्पत्ति के अनुरोध से ईश्वरीय कृति की कल्पना नहीं हो सकती। यदि यह कहा आप कि-वाधि को घट सामान्य के प्रति कारण न मानकर विलक्ष घट के प्रति कारण माना जायमा : पाक स्थलोय घट के लिये वण्डादि की भावश्यकता नाी होगी।'- तो यह बात कृति के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। प्रर्थात घट सामान्य के प्रति कृति को कारण न मानकर साण घट केही प्रतिकृति को कारण माना जा सकता है । प्रत: पाकस्थलीय घट के लिये कृति की मी कल्पना अनावश्यक हो सकती है।
यदि यह कहा जाय कि-'कृति को स्वप्रयोश्य विजातीय संयोग सम्बन्ध से घट का कारण मानने में गौरव है । प्रस: लायष के लिये समयाय सम्बन्ध से घट के प्रति विशेष्यता सम्बन्ध से ही कृति को कारण मानना उचित है । ऐसी स्थिति में जिस खण्ड घट की उत्पत्ति के पूर्व वण्ड स्वप्रयोज्य कपालय संयोग सम्यम से है किन्तु कुलालकृति विशेष्यता सम्बन्ध से नहीं है- उस ववष्ट के लिये ईश्वरीय कृत्ति की कल्पना प्रावश्यक है तो यह वीक नहीं है, क्योंकि कृति भी स्वप्रयोज्य सम्मान से ही घट के प्रति कारण है न कि स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बाध से क्योंकि विजातीयसंयोगस्व रूप से स्वप्रयोज्य को कारणतायसवक सम्रय मानने में गौरव है। पौर स्वप्रयोज्यसम्बन्ध से कारण मानने में विशेग्यता सम्बन्ध से कृति को कारग मानने को मपेक्षा कोई गौरव नहीं है क्योकि विशेष्यता सम्बन्ध मे कारण मामने में कारणसापच्छेदक सम्बन्धतावस्थेवक विशेष्यप्तास्थ होगा और स्वप्रयोग्य सम्बन्ध से कारण मानने पर कारणतावस्थेवक सम्मन्धतापबाहेवक-प्रयोज्यत्व होगा। और प्रयोक्याव और विशेष्यतारध में कोई लाघव-गौरव नहीं है क्योंकि दोनों ही स्वरूपसम्बन्धविशेषरूप है । उसके अतिरिषत यह भी सातव्य है कि कृति को घट सामान्य के प्रति कारण न मानकर विजातीय घट के प्रति कारण माममा उचित है। अंसा कि ममी रण्डादि को विजातीय घर के प्रति कारण बताया गया है। तो इस प्रकार जब घट सामान्य के प्रति कृति कारण ही नहीं है तो कृति के बिना भी पाकस्थलीय घट की या खाया की उत्पत्ति हो सकती है। मप्त: उसके अनुरोध से ईश्वरीय कृति को कल्पना नहीं की जा सकती।
[ ईश्वर में लौकिक प्रत्यक्षज्ञान का प्रभाव ] इस प्रसङ्ग में यह मी विचारणीय है कि उपावान कारण का लौकिक प्रत्यक्ष हो कार्य का देत होता है।पयोंकि उपायान के अलौकिक प्रत्यक्ष के प्राधार पर मम्म देशस्थ या अन्य कालस्य जमावान में कोई भी का कार्य को उत्पन्न करने का प्रयास नहीं करता और उपावान का लौकिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय के लौकिक समिकर्ष से हो संपन्न होता है। अतः जबर में उमावि के उपादान पर