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मुरुड-०३-१०९
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किञ्च एवं नानात्मस्त्र व्यायवृत्ति तत्कल्प्यताम् स्वाश्रयसंयुक्तसंयोगमंत्रन्धेन तेषु तत्कम्पनापेक्षया समवायेन तत्कल्पनाया एवं तब न्याय्यात् । न घटादिभ्रमोदाचिः बाधबुद्धिभ्वादिति वाच्यम् बाधबुद्धिप्रतिबन्धकसाया चैत्रीयत्वस्यावश्यं नियेश्यत्वात् । तच समवेतत्व संबन्धेन चैत्रवश्यं पर्यासन्वेन या इति न किश्चिद् चैपम्यम् ।
अपि च, 'देवतासंनिधानेन' इति पण प्रतिष्ठादिना स्वाभेद- स्वीयत्वादिज्ञानं नाहिस्काररूपं कादो स्वीकृतम्, न अमादीनामीश्वरमेदः, भगवद्गीताविरोधात् । एवं
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इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि फार्म प्रत्यक्षाविजन्यं कार्यस्थात इस अनुमान का कार्यों के कारणभूत प्रत्यक्षावि सिद्ध होने पर भी उसके प्राश्रमरूप में ईश्वर को सिद्धि में कोई प्रभाग नहीं है। क्योंकि कवि के उपावनभूत परमाणुओं के प्रत्यक्षादि को मिराश्रय माना जा सकता है। यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्षात किसी माश्रय में हो रहता है। अतः परमाणु के प्रक्षादि में निराश्रयस्व की कल्पना ष्टविरुद्ध होने के कारण नहीं की जा सकती' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि तब तो जीव में श्रनित्य ही ज्ञान प्रावि सिद्ध होने के कारण ईश्वर के ज्ञान आदि में विश्व की भी कल्पना विरोध के कारण नहीं की जा सकेगी। इस बात को सम्मति टीका में यह कहते हुए स्पष्ट किया गया है कि यदि ईश्वर की बुद्धि नित्य और व्यापक है तो ईश्वर के बिना भी बुद्धि को प्रवेतन पदार्थों को प्रभिष्ठात्री मान लेना चाहिए उसके माधारभूत ईश्वर की कल्पना निरर्थक है ।
इस सन्दर्भ में यह भी कहा जा सकता है कि चणुकादि के उपादान कारणभूत परमाणुनों कान ईश्वरर किसी एक अतिरिक्त आत्मामें न रह कर संपूर्ण प्रात्मानों में ही व्यायवृत्तिपर्याप्त सम्बन्ध से रहता है क्योंकि उस ज्ञान को अन्य मात्मायों का अधिष्ठाता बनाने के लिये उनके लाय उस जान का स्वाश्रय संयुक्त संयोग सम्बन्ध मानना होगा जैसे स्व का अर्थ है ज्ञान, उसका चाय है ईश्वर उससे संयुक्त है मूर्तद्रव्य और उसका संयोग है जीवात्मा में तो इस स्थिति में मही उचित प्रतीत होता है कि उस ज्ञान को स्वाश्रय संयुक्त संयोग सम्बन्ध से जीवात्मानों में न मानकर समवायसम्बन्ध से हो माना जाय । यदि यह कहा जाय कि 'उस ज्ञान को समस्त जीवों में मानने पर किसी को घटादि का भ्रम न हो सकेगा, क्योंकि जिस देश में घटादि का भ्रम होता है उस वेश में प्रस्येक मनुष्य को घटाभाव को बुद्धि विद्यमान है जिससे घदाबि के भ्रम का प्रतिबन्ध हो जाना अनिवार्य है तो पह ठीक नहीं है क्योंकि एक gas को बाधबुद्धि से धन्य पुरुष की विशिष्ट बुद्धि के प्रतिस्थापति के निवारणार्थ चैत्रादि तखपुरुषीय विशिष्टबुद्धि में मंत्रादि ततपुरुषीय बाथबुद्धि को प्रतिवश्यक' मानना आवश्यक होता है । जिस में तत्पुरुषीयश्य का अर्थ तसरपुरुषसमवेतत्व म कर पुरुष पर्याप्त कर देने से जगत के कारणीभूत सर्वविषयक ज्ञान को सर्वात्मगत मानने पर होने वाली घटादि काम के उच्छेद की मापत्ति का परिहार सुकर हो जाता है क्योंकि सबंधिकशाम किसी एक मामा में न होकर सभी प्रात्मा में पर्याप्त होता है । धतः तसपुरुष पर्याप्तमाधवृद्धि को मानने पर सज्ञानामक वाघद्धि से विशिष्टबुद्धि का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता ।