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स्पा०० टीका हिन्दीधिवेचना ]
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सुखदुःखादिश्रवणाद वर्मा-त्रिपि तत्राऽङ्गीकर्तव्यौ । न च विरोधः, ब्रह्मादिशरीरावदेनाऽनित्यज्ञानादिमध्येऽप्यनवच्ज्ञिानाविरोधात् । अत एवाऽन्ये तु 'स तपोऽतप्यत' इति श्रुतेः अणिमादिप्रतिपादक थुनेम धर्माऽधर्मावनित्यज्ञानादिकमपीश्वरे स्वीकुर्वन्ति इति शशधरेऽभिहितम् । एतन्मते च बाधादिप्रतिबन्धकतायामसमवेतत्वेन चैवादिलक्षणदेवर निवेश्यत्वाद् नातिरिक्त नित्यज्ञानाश्रय सिद्धिः ।
[ ईश्वर में जन्यज्ञान की प्रापत्ति ]
इस प्रसङ्ग में इस विषय पर ध्यान देन्दा मी आवश्यक है कि स्यायशास्त्र में ब्रह्म प्रावि देवलरों की प्रतिमाओं में शास्त्रोक्त प्रतिष्ठाविधि से बेषताओं का सन्निधान माना गया है । देवतानों के सत्रिधान का अर्थ है प्रतिमा में देवता को प्रभेदबुद्धि या श्रात्मीयत् बुद्धि। इसी को प्रतिमा का प्रतिष्ठा जन्य संस्कार कहा जाता है। इस प्रकार जब बह्मर्शद देवताओं में अपनी श्रभितामामात्मीयता का जाम उत्पन्न होता है तब यश कसे कहा जा सकता है कि ईश्वर में जन्यज्ञान नहीं होता किन्तु नित्यज्ञान ही होता है ! यदि यह कहा जाय कि सावि वेबता ईश्वर से भिन्न है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अपने को ही जगत् का स्रष्टा-पालक श्रोर संहर्ता बताया है और अपने ही को ईश्वर कहा है। इसलिये ब्रह्माविको ईश्वर से भिन्न मानना मगीता के विरोध के कारण उखिल नहीं है। उसी प्रकार पुराणों में यह भी सुमने को मीलता है-ह्मादि देवताओं को अनायास उपलब्ध होने वाले विषयों से सुख और राक्षसों के अत्याचार से दुःख भी होता है। प्रतः बह्मादि में सुख और दुःख के कारणभूत धर्माऽधर्म की भी सत्ता माननी होगी और ब्रह्मादि के ईश्वर से नि होने के कारण ईश्वर में मो धर्माऽयमं को मला अनिवार्य होगी ।
इस प्रसङ्ग में यह भी कहा जा सकता है कि-ट के आरम्भ में काट की उत्पत्ति के हेतु के उपादान कर परमाणु का ज्ञान ईश्वर को मानना आवश्यक होता है और उस समय कोई शरीर न होने से उस ज्ञान को वीरादि से अनवचित्र निश्य हो मानना पहुंगा । तो फिर उसमें प्रमिस्य ज्ञानादि की सत्ता मानना विरोध है किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि बहाव के शरीर द्वारा प्रमित्यनवि को ससा और किसी सशरीर आदि को द्वार बनाये बिना होमिन की सत्ता मामले में कोई विरोध नहीं है । इसीलिये शशधर' नामक पंडिरामे स्वराग्य मे कह कहा है कि य विज्ञान सपोतायत' इस श्रुति के अनुसार और ईश्वर में प्रणिमादि आठ प्रकार के ऐश्वयों का प्रसि पादन करने वाली श्रुति के अनुसार ईश्वर में धर्माधर्म और मनिश्यज्ञानादि का प्रति मानते हैं। इस मत में विशिष्टबुद्धि के प्रति बधद्धि को शरीरावचित्र समवेत स्वरूप से या पर्याप्तत्वसम्बन्धेन क्षेत्र निष्ठ रूप से प्रतिबन्धक मानकर भ्रम को अनुपपति का परिहार किया जा सकता है क्योंकि सर्वfareerक बाधबुद्धि शरीरावच्छेदेन समवेत नहीं होती और न पर्याप्तत्व सम्बन्ध से wafa एक व्यक्ति में ही विद्यमान होती है। मतः उससे भ्रमति का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता। इस प्रकार समस्त जीवों में धणुकादि के उपादान कारणों के नियज्ञान को व्यासज्यवृत्ति मान लेने से संपूर्ण प्रावश्यक उपपत्तियां हो जाने के कारण नियमास के ईश्वररूप प्रतिरिक्त प्राय को सिद्धि नहीं हो सकती