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________________ [ शा०या० समुच्चय न. ३-लोक : किश्च, प्रवृत्तिविशेपे इछान्वयगतिरेकान्, प्रनिविशेष द्वेषाऽन्वयन्त्यतिरे कावपि दृष्टी, पुरमा मापनमःकानुन कारकादी शंबात । न च जिंहासर्थव द्वेषान्यथामिद्धिः, 'तर्दूतो" इति न्यायान् । अन्यया द्वेषपदार्थ एव न स्यात् , 'इंग्मि' इत्यनुभवे चिनिष्टमाधननाज्ञानम्प, क्वपिचानिष्टत्वज्ञानम्यैव द्वेषपदेन नवाभिलापाद । एवं च कार्यसामान्ये द्वेषस्यापि हेतुबमिती निस्पद्वेषोऽपीश्वर सिद्धशत । द्वेषवतः मंसारित्रप्रसङ्ग इति चैन ! चिकीवितोऽपि किन सः ? 'द्वेष-चिकीर्पयोस्तन ममानविषयन्वे करणा-ऽकरणप्रसङ्गः, भिन्नविषयत्वे च तस्कार्य न कुदिन, इति बाधकान् वैपकल्पना त्यज्य' इति चेत् ? एवम् भरकालोपस्थितबाधकेन तदाधीपगमे, नित्यज्ञानादिकल्पनागौरवादिषाधकेन क्लुप्तोऽपीश्वर स्त्यज्यताम् । [प्रवृत्ति से ईश्वर में द्वेष का प्रतिप्रसंग] इस संदर्भ में यह भी विचारगोष है कि जैसे प्रवृत्तियिशेष में पछा का अन्य मध्यतिरेक होता है पर्थात् जिस विषय को इसका होती है उस विषय में प्रवृत्ति होती है और जिस यिश्चम में हुया नहीं होती उत्त विषय में प्रति नहीं होती, उसीप्रकार प्रवृत्तिविशेष में देष का नो अन्वय-व्यतिरेफ वेझा जाता है। जैसे दुख के प्रतिष होने के कारण दु:ख लाधन कष्टकावि के प्रतिष होने से उन का नाश करने के लिये कण्टकावि में प्रवत्ति होती है, मोर जिस विषय में वेष नहीं होता उस विषष के नाश के लिये उस में प्रति नहीं होती। जैसे पुत्रकलयादि। फलतः ईश्वर में अगत निर्माण की प्रत्ति मानने पर जैसे उस में निस्य इच्छा मानी जाती है उसीप्रकार जगत् निर्माण के विरोधी वस्तु के नाश के लिये उस के पर वेष मानना भी आवश्यक होगा। इस प्रकार ईश्वर का वेषी होना अनिवार्य हो जायगा जो ग्यायशास्त्र की दृष्टि से मान्य नहीं है। यदि यह कहा आय कि"तु:ससाधनों के नासार्थ जो प्रवत्ति होती है वह उन के प्रति वेष के कारण नहीं होती अपितु उन के परित्याग की इच्छा से होती है। क्योंकि जिस वस्तु के प्रति दुवेष होता है उस कातु के स्यागकी भी इममा अवश्य होती है अतः एष त्याग कोमछा से दवेष प्रन्ययासिद्ध हो जाता है । प्रत: अनिष्ट साधनों के नाशार्थ होनेवाली प्रवृत्ति से वषेष का अनुमान नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस को उपपत्ति निहासा प्रति त्याग की इच्छा से ही सम्पन्न हो जाती है." सो यह ठीक नहीं है “योंकि ततोरेवास् कि तेन ? इस ग्याष से नाशार्य प्रति के प्रति वेषजन्य मिहासा को हेतु मानने के बजाय सीधे वेष को हो हे मानने में मधिस्य है। पौर यदि जिहासा से वेष को प्रन्यथासिझमाना जायगा तो वेय पदार्थ ही सिद्ध न हो सकेगा। क्योंकि दुःख स्वरूपतः अर्थात सिनाष्य हुए और उस का साधन अनिष्ट का साधन होने से सोघे ही, जिहासित हो जायगा । जिज्ञासा के पूर्व खुश्ख मा दु:ख के साधन प्रलि वेष मानने की कोई प्रावस्यकता मिशन होगी। यदि यह कहा जाय कि 'वेष्मि-मुझे इस विषय के प्रति वृषेध है-म अनुमब हो वृषेष के मस्तित्व में प्रमाण होगा'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दुख के साधन कण्टकावि में प्रमिष्ट साधनता
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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