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स्था० क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
तत्त
एन- 'पुरेषु पुरेशानामिव जगदीशज्ञानेनादिव एव तत्तत्कार्यार्णा स्वल्पतमाऽधमदेश - कालादिनियमः वदन्ति हि पामरा अपि - 'ईश्वरेन्द्रव नियामिका' इति न के ज्ञान को लथा दुःख में शिश्न को ही द्वेष पद के व्यवहार का विषय मानकर उन शानों द्वारा ही 'वेध' इस अनुभव की उपपत्ति को जा सकती है। इस उपर्युक्त चर्चा का निष्कर्ष यह है कि जैसे पादि कतिपय कार्यों में ज्ञान इच्छा अवि का प्रश्वयध्यतिरेक देखकर कार्य सामान्य के प्रतिशत प्रादि को कारण माना जाता है और उस के श्राधार पर कार्य सामान्य में ज्ञानादि अन्यत्व का अनुमान करके कार्य सामान्य के कारणीभूत शानादि को ईश्वर मिठ माना जाता है। autoere दुःखसायनीभूत कष्ट्रकवि के नाशरूप कार्य में कष्टावि के प्रति द्वेष का श्रन्यममसिरे देखकर कार्यसामान्य के प्रति द्वेष को भी कारण माना जा सकता है और उस के आधार पर कार्य सामान्य में वषजन्यथ का अनुमान कर कार्य सामान्य के कारण भूत द्वेष को भी ईश्वरनिष्ठमानना अनिवार्य हो सकता है । फलत: ईश्वर में नित्यज्ञानादि के समान निश्य इंष की श्री सिद्धि का परिहार नहीं किया जा सकता
यदि यह कहा जाय कि ईश्वर में द्वेष मानने पर वह ईश्वर ही नहीं हो सकेगा मपि संसारी हो आएगा तो यह आप ईश्वर में चिकीयां मानने पर भी परहा है। क्योंकि विकी भी संसारी में ही देखी जाती है। यदि यह कहा जाय कि द्व ेष और चिको को समानविषयक मानने पर एक ही समय एक सो कार्य के करने और न करने दोनों को हो आपत्ति होगी । अर्थात् चिकीर्षा से उस कार्य का उत्पावन और द्वेष से उसी कार्य का अनुत्पाचन भी प्रसक्त होगा। जो प्रत्यन्त विरुद्ध है और यदि द्वेष और विकीष को भिन्नविषयक माना जायगा तो जो द्वेष का विषय होगा वह fanta का विषय न होने से ईश्वर द्वारा उत्पान हो सकेगा। फलतः ईश्वर में सर्वकार्यकत्व के सिद्धान्त की हानि होगी। अतः ईश्वर में द्वेष को कल्पना नहीं की जा सकती तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ईश्वर में द्वेष कल्पना का जो बाधक प्रस्तुत किया गया है वह ईश्वर मेंष को सिद्धि हो अश्ते पर उपस्थित होता है अतः उसेष कल्पना का बाधक नहीं माना जा सकता। और यदि किसी वस्तु की सिद्धि के बाव उपस्थित होने वाले साधक से भी उस वस्तु की सति का बाथ मात्रा जायगा तो ईश्वर को मिद्धि का भी प्रतिबन्ध उस वाक से हो सकता है जो ईश्वर मानने के फलस्वरूप उपस्थित होता है जैसे, ज्ञान और प्रयत्न में निश्वस्व अर्थात संपूर्णकाल के साथ सम्बन्ध की कल्पना एवं ईश्वर में संपूर्णकाल के सम्बन्ध की कल्पना और निश्य ज्ञान प्रावि में संपूर्ण वस्तुओं के विषमस्व को कल्पना एवं घटाभाव पटाभावादि श्रनन्त श्रमाषों के सम्बन्धों को कल्पना से होनेवाला गौरव सब कल्पित ईश्वर को भी छोड देना होगा ।
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[ ईश्वर की इच्छा से देश-काल नियम को उपपत्ति का प्रयास ]
इस सन्यर्भ में कतिपय ईश्वर करववादियों की ओर से यह कहा जाता है कि जिस प्रकार नगरों में नगरा की ज्ञान के अनुसार ही प्रत्प अथवा अधिक देश काल और परिमाण में मिन मित्र कार्यों के उत्पादन का नियन्त्रण होता है उसी प्रकार यह मामला मी प्रावश्यक है कि जगत् का कोई सथीश्वर है और उसके ज्ञान इच्छादि से ही जगत में विभिन्न कार्यों के उत्पादन का नियत्रण होता है। यह मान्यता इतनी मूल हैं कि शिक्षित भी ऐसा कहा करते हैं कि 'संसार में