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________________ ४] ( शा वा. समुश्चय १० -लोक देश-कालनियततत्तन्कार्योत्पत्तिज्ञानादित एवं हनन्कामानयहि गतं दण्डादिकारणत्यनेनि घाच्यम् , तदनुमनत्वमेव दण्डादीनां घटादित्वात् । न हि 'दण्डादिरेव घटादेरनन्यथासिनियतपूर्वबनीं न वैमादिः' 'कपालादि गमवागि, न तन्वादिकम्' इन्स्त्राऽन्य नियामकं पश्याम इनि सदनुमत्यादिकष तथा, नदनुमत्यादिकं म साक्षात् , किन्न नसकारणद्वारा तत्तसंपादकम् । नहि गजानादितोsiq दिनांक. ननचादि, विना तन्वादिक पटादि-इति पामराशयानुसरणसंक्रान्सपामरभावान मतमपासतम, गजासादितल्यतयेश्वरेच्छाया अहेतवान् सामग्रीसिद्धसर नियनदेश-कालवस्य तज्जन्यताघटकलया सदनियम्यादात , अन्यथा तन्काला. जो कुछ होता है यह सब ईश्वर की ही इच्छा से होता है। यदि यह कहा जाय कि त तन् वेश प्रोर ततव कार्य की उत्पत्ति नियत है और इस नियतत्व के ज्ञान मादि से ही सबसवेश और तद तह काल में तहत कार्य की उत्पत्ति का नियन्त्रण होता है-ऐसा मानते पर घटपटादि कार्यों के प्रति इण्डमाविकी कारणता काही लोप हो जायगा -तो यह ठीक नहीं हैं क्योंकि दण्ड-वेमाटि घटात कार्यों के प्रति जो कारण होते है वह मौ ईशवर की अनुमति से ही होते है। यदि ऐसा न माता जायगा तो वपाधि ही घटादि का अनन्यथासिद्ध नियतपूर्ववत होता है और मार नहीं होता, एवं कपालाविही घटादि का समय सम्बन्ध से प्रावध होता है तन्तु मावि नहीं होता' इसका ईश्वर को छोडकर दूसरा कोई नियामक नहीं हो सकता। और यज्ञ भी जातव्य है कि ईश्वर की अनमति मी तत्तत्कार्यों का साक्षात् उत्पादक न होकर तत्तकारणों द्वारा ही उत्पादक होती हैं । यह मानना लोकस्थिति के अनुकूल मोहै क्योंकि राजा को प्रामामादि से भी तन्तु प्रावि का निर्माण अंशुकादि के मिना मोर पदादि का निर्माण तन्तु पावि के बिना नहीं होता। प्रतः जैसे किसी भी राज्य में विभिन्न कार्य का उत्पादन राजा की प्रामा अनुसार होने पर भी उस कार्य के लोकसिद्ध कारणों के माध्यम से ही होता है उसी प्रकार प्रणा में मी जगत के रामा ईश्वर की पहा से भी तत्तत्कायों का उत्पावन तसस्कायों के लोक सि कारणों द्वारा ही होना उचित है. पोंकि परमेश्वर की वैसी ही अनुमति है। इस सम्बन्ध में प्याख्याकार श्रीमवयशोविजयजी महाराज का कहना है कि यह मत पामरों में प्रमिप्रायानुसार प्रसत्त होने के कारण संकारत पामरमाव वाले व्यक्तियों के लिये ही मान्य हो सकता है, खिमान मनुष्य इस मत को नहीं स्वीकार कर सकता, क्योंकि राजाको पाशादिके समान ईश्वर की दयाको कारण मानना प्रमाणसिद्ध नहीं है। क्योंकि इस मत में तसद्देश और तस्सस्काल में तत्सत्कार्य के नियतश्व को ही-जो तत कार्य की उत्पादक सामग्री से संपन्न होता है-तद् तद् धेगा भोर ततकाल में ससत्कार्य को जस्पति का नियामक कहा गया है। किन्तु यह र होता क्योंकि उस नियतत्व तत्तरकार्यगतजन्यता का घटक होता है मत एवं उससे तत्तत्कार्य को पति का नियमन मीमो सकता. क्योंकित्सस्कार्य की उत्पत्तिका नियमन उस्सीसे संभवशी मसत्कार्य की उत्पत्ति के पर्व उपस्थित हो सके. किन्स जो ससकायंगल अत्यताका घरकतो सरकार्य के साथ ही उत्पन्न हो सकता कि तसस्कायोत्पत्ति के पूर्व । अतः उसे सत्ताकार्य की उत्पत्तिका नियामक माममा संभव नहीं हो सकता।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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