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________________ २] [ शाप्रपातीममुच्चय त २ श्लोक ३५.६५ अथ कर्मवादमाह--- मूलं—न भोक्तव्यतिरेका भोग्यं जगति विद्यते । न प्याकृतस्य मोक्ता स्यान्मुक्तानां भागभावतः ॥२५॥ भोक्तव्यानर फेण जगति-चराचरे, भाग्यं न विद्यते, भोम्पपदस्य मसंबन्धिमत्वान । न चाश्कृतस्य भोक्ता स्यान . स्वव्यापारजन्यम्यय स्मभोग्यवदर्शनात, अन्यथा, मुक्तानां निमितार्थानाम् . भागभाषतः भागप्रमहगान ।।६५|| ततः किम : इन्याहमूलम्-भाग्य च विश्व' सत्यानां विधिना तेन तेन ग्रन्। दृश्यतेऽयक्षमयेद तस्मात् तत्कर्मज हि तत् ॥६॥ भाग्यं च-भागपषोचनं च, सत्त्वानां-मारिणाम् । नेन तेन सुखदुःखप्रदानादिल मोन, विधिनाः-प्रकारेण, इदं विश्व-जगत, अध्यक्षमय-म्यसंवेदनसाक्षिकमेव दृश्यते, यद-पस्मान् हेतोः तस्मान् कारगात , हिनिश्चिनम, तत्-जगन् , सत्कर्मजभोक्तकमैजप् । जगद्धतुत्यं कर्मण्येर, इनरेपो पराभिमतहेतूनां व्यभिचारित्वादिति भावः ।६|| तथा (तत्तय्यक्तिरूपकार्यसिद्धि के लिये भो क्रिया अनावश्यक) यदि यह कहें कि-"एक व्यक्ति के उत्पन्न हो जाने पर उक्त रीति से व्यक्तिरूप में सब को लिखि हो जाने पर मो तसा व्यक्ति के रूप में तो सब की सिद्धि नहीं हो जाती प्रतःप्तल्यक्ति को सिन करने के लिये किया की अपेक्षा हो सकती है- सो यह टोक नहीं है, क्योंकि व्यक्तिनिष्ठ तत्ता को अन्यमेवरूप नहीं माना जा सकता क्योंकि अन्यभेव का शान न होने पर भी ध्यक्ति की तत्ता का 'सोऽयम्' इस रूप में मान होता है। सत्ता को तब्यक्तिरूप भी नहीं माना जा सकता बोकि हेतु से व्यक्ति को ही उत्पत्ति होने से उत्त में ससा विशेषरा सिद्ध ही नहीं है, अत: उसे सव्यक्ति कह कर तसा फो तत्स्वरूप नहीं कहा जा सकता । अतः अन्य कोई गति न होने से यही कहना होगा कि ग्यक्ति की तत्ता व्यक्ति का नियतिमूलक धर्म है। नियसि तत्सविशिष्ट ही व्यक्ति को उत्पन्न करती है। मतः कार्य के नियतिवम्यत्वपक्ष में उत्पन्न होनेवाले व्यक्ति में सत्मिकता को मापत्ति नहीं हो सकती। अतः नियति को सिद्धि निर्विवाब है ।।६४।। (नियतिवाव परिसमाप्त) ("भोग्य-भोक्ता और कृत का भोग'-कमान) ६५ौं कारिका में कर्मवाद की स्थापना करते हुये कहा गया है कि इस घराचरात्मक जगत् में मोम्म की सत्ता भोक्ता की सत्तापर हो निर्भर है, क्योंकि 'मोम्य' यह सम्बन्धिसापेक्ष पदार्थ है प्रतः भोक्तारूप सम्बन्धी के प्रभाव में उसका मस्तित्व नहीं हो सकता। मोक्ता मी प्रकृतकर्म का भोग नहीं कर सकता, मोंकि जो जिसके व्यापार से उत्पज होता है वही उसका प्रोग्य होता है। यदि प्रकृत कर्म का मो मोग माना जायगा तो मुक्त पुरुषों में भी मोग की आपसि होगी, क्योंकि जब भोग के सिये मोक्ता को कम करना प्रावश्यक नहीं है तो संसारी पुरुषों द्वारा होने वाले कर्मों का भोग मुक्त पुरुषों में क्यों न हो सकेगा ? ||६५।।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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