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________________ म्या० ० टीका-हिन्दी विवेचन ] [ . उक्तमेव पावकविपझन्वेनामूल-अन्यथाऽनियतत्येन सर्वभाषः प्रसज्यते । अन्यान्यात्मकतापते: क्रियाफल्यमेव च ॥३॥ अन्यथा= नियतिजन्यत्वं पिना, अनियतत्वेन हेतुमा, सर्वभावः प्रमज्यते, ध्ययविशेषात् । प-पुनः अन्योन्यात्मकमापसेन्घट-पाद्यविशेषापसः, कियाफल्य मेव, सिद्धाया व्यक्तेरसाध्यत्वात् । 'सा व्यक्तिर्गसद्ध षे' ति चेत् १ तवं नान्यभेदः, तदनईऽपि मोऽयम्' इनि नशाग्रहात् । नच तम्यक्तिरेव तस्त्रम् , तस्य तत्राविशेषणवात् । किन्तु नियतिकतधर्म एव, इति सिद्ध नियन्या ६४।। उस्तो नियतिवादः। है यह प्रश्न पुम: हो जाता है, अत: कार्य में सामात्य जात्य का नियामक ऐसा होना चाहिये जिसके बारे में ऐसा प्रश्न न हो, और ऐसा नियामक निर्यात के अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं हो सकता। [ कार्य अवर्यभाव का सम्यक् निश्चय ] वह भी सातव्य है कि-'पा आदि होने पर घर अवश्य होता है प भी सम्मक निश्चय नही हो सकता, क्योंकि बाविसमी हेसमों के होने पर भी अनेक बार प्रतिमाशक वाविवश घर की उत्पत्ति प्रसिद्ध हो जाती है। अत. या आदि के होने पर घटोत्पति की कवल सम्भावनाही मानो जा सकती है। इसलिये सम्यक विषय के अभाव में कार्य के दृष्ट कारणों की सिसि होतो सकतो. किन्तु जितका होगा मियत है यह होता हो है' या सम्यक निचप है. क्योंकि इसमें विपरीतता नहीं होतो, अतः इस निश्चय से नियति में पाये को जमकता को मिति निर्वाष है। कार्यनितिजयस्वपक्ष में यह प्रान हो सकता है कि कार्य की उत्पत्ति के पूर्व कार्यायों को नियति का निश्चय तो होता नहीं फिर कार्य के उत्पादनार्थ उस की प्रवृत्ति कैसे होगी ?'- नियतिवारी को मोर से इस प्रस्न का उत्तर यह है कि कामार्थी को प्रवृत्ति नियति का ज्ञान हुये बिना ही होती है। यह कार्य की उत्पत्ति नावश्य होगी इस बात के मिश्चय से नहीं प्रवत होता, वह तो यही सोच कर प्रवत होता है कि पति निर्यात होगी तो कार्य अवार्य ही होगा । मतः कार्य के लिए जो कुछ बहकर सकता है यह उसे करना चाहिये । अतः यह स्पष्ट है कि कार्यापी को प्रति प्रविमा से ही होती है, कार्य की सिजि तो नियतिवश सम्पन्न होती है ।।६।। [नियति विना कार्य में सर्वात्मकता को प्रापत्ति] ६४ वी कारिका में पूर्वोक्स बात को विपक्ष के वाधक कार में प्रस्तुत करते हये कहा गया है कि'पदि कार्य को नियतिजन्य न माना जायगा तो कार्य में नियतरूपता का कोई नियामक न होने से उत्पन्न होने वाले कार्यग्यक्ति में सर्वात्मकता की प्राप्ति होगी, और कार्यव्यक्ति के सर्वात्मक होने पर घट पट प्रावि कार्यों में कोई अन्तर न रह जाने से किसी एक कार्य व्यक्ति के उत्पन्न हो जाने पर अन्य कार्य व्यक्ति भी सिद्ध हो जायगी, फिर उसके लिये मनुष्य की क्रिमा निरर्थक हो जायगी, क्योंकि सिख को सम्पावित करने के लिये कोई क्रिया नहीं मपेक्षित होती।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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