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________________ [ शा० बा० समुच्चय ०२-०६३ · न च लोके जगति नियतिसृते नियति विना गुद्गपचितरपीक्ष्यते दृश्यते; यत नासी अधिकता स्स्स्वभावादिभावेऽपि पवितजनकस्वभावव्यापारादिवेऽपि स्वभावस्य मुक्तिः अनियता, किन्तु स्वरूपनियता न चैतद् नैयत्यं स्वभावप्रयोज्यम्, कार्येकजात्यप्रयोजकस्यात् । अतिशयरूपस्याऽपि तम्य विशेष एव प्रयोजकत्वात्। पक्त्यन्तरलाजात्यये जात्यो मानुषेषम्य निर्यात विनासंभवात् 'हेतुना व्यक्तिरेवन्पाद्यते उभयानु वेवस्तु तत्र तच्चानन्तरसंवादिति चेत् ? न समवायादिनिरासेन तत्यवेधानुपपशेः, अनिराति तत्संवेवनियामक ८० ' , 9 किञ्च दण्डादिसखेऽवश्यं घटोत्पत्तिरिति न सम्यग् निश्वयः तन्वेऽपि कदाचिदू घटालुत्पत्तेः किन्तु संभावनैव इति न दृष्टहेतु सिद्धि यद् माध्यं तद्भवत्येव । इति तु सभ्यग् अविद्यनिश्वयः । न कार्योत्पत्तेः पूर्व नियत्यनिश्चयात प्रवृत्तिनं चैत्र प्रः फललाभस्य तु यान्त्रिकत्वादिनि दि ॥३३॥ स्यादिति वाच्यम् सम्पतिक कारणों का समाज एकत्र होता है तब उन सभी धर्मों से युक्त एक कार्य की उत्पत्ति होती हैं" टंक नहीं है, क्योंकि तावद्धमेव को एक नियति का श्रासावरखेवक मानने में लात उस में कारण समाज निम्कीमा मिस नहीं हो सकी। दूसरी बात यह है कि तलद् धर्म से विशिष्ट कार्य यदि भिन्न भिन्न कारण सामग्री से जन्य होगा तो भिन्न सामग्रियों से उत्पन्न होनेवाले कार्य में एक वस्तुरूपता न हो सकेगी। निर्यात के समर्थन में यह बहुत अच्छी बात कही गयी है किमनुष्य को जो भी शुभ अशुभ नियति द्वारा प्राप्तव्य होता है वह उसे अवश्य प्राप्त होता है क्योंकि जगल में यह देखा जाता है कि जो वस्तु जिससे नहीं होने वाली होती है वह बहुत प्रयत्न करने पर भी उनसे नहीं होती और जो होने वाली होती है उसका कभी नाश घामे विघटन नहीं हो सका ||६|| [ पचनस्वभाव होने पर भी नियतिथिना पाक अशक्य । ] ER कारिका में पूर्वारिका के विषय को ही अन्य प्रकार से स्पष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है- सहार में नियति के बिना मूंग का पाक भी नहीं देखा जाता, मूंग पाक के स्वभाव के व्यापारकाम होने पर भी वह अनियत स्वरूप नहीं होता किन्तु नियत से सम्पादित स्वरूप से सम्पन्न ही होता है। उसका स्वरूपनयत्य स्वभाव से नहीं उपप हो सकता क्योंकि स्वभाव कार्यों की एकजातीयता का प्रयोजक नहीं होता. यदि स्वभाव को अतिशयरूप माना जाय तब भी वह कार्य में विशि का हो प्रयोजक होता है. ग के पाक में अन्य पाक के साजात्य और मंजस्य के अस्तित्व का प्रयोजक तो मिस हो होती है। यदि यह कहा जाय कि "मियत हेतु से तो व्यक्ति की ही उत्प होती है उसमें साजात्य और यंत्रात्म की सिद्धि तो अन्य से ही होती है. अत कार्य को मि जन्य मानने पर भी उस में सजाय जास्य को उपपत्ति के लिये हार ही मानना होगा, तो फिर की उत्पत्ति सो स्वभाव आदि से भी हो सकती है अतः उसके लिये नियति को रूपमा श्रमावयक है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यह तस्यान्तर समवाय यानि हो ही सकता है, किन्तु उस का और पदि उसे भाषा भी जाय तो उसी का अस्तित्व कार्य में किस निमित्त से होता हो
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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