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________________ स्या• • टी-हिन्दी विवेचन] [ बहुदेशव्यापि, जायमानं दृश्यते तायटादिकम् , सच-विवक्षितकाल एव, ततः-दण्डाद, तथानाबदेशव्यापि, लोकेजगति, नियतम् नियतिकतम् , जायते । तनी न्यायात्सकान , क एमां-नियनि, चाचित तमः प्रमाणमिद्धे चाधानवतारात , नियतरूपान्छन्नं प्रति नियतैरव हेतुन्वार , अन्यथा नियतरूपस्याप्यास्पिताऽऽपतः । न च विद्रमक न जन्यताक्छेदकम् , फिन्त्वार्थसमाजमिद्धमिति घाटयम् ; नियतिजन्यवनवोपपत्तावार्थममाजाऽकम्पनान् भित्रमागनीजन्यतय वस्तुरूपव्याघातापत्र । तदुक्तम् "प्रासन्यो नियतिबलाश्रमेण योऽर्थः, सोऽयश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाऽभात्र्यं भवति, न भाविनोऽस्ति नाश" ॥१॥ इति ।।दशा इदमेव विवृणोनिमूलाम्-न चर्ते नियति लोके मुद्गपक्तिरपोश्यो' । सरस्वभावादिभावेऽपि नासायनियता यतः ॥३॥ मानना मावश्यक है कि सभी पवायं किसी ऐसे सत्त्व से उत्पन्न होते हैं जिस से उत्पन्न होनेवाले पदार्थों में निमतरूपता का नियमन होता है, पवाओं के कारण मूत उस तत्त्व का ही नाम 'नियति है । उत्पन्न होने वाले पदार्थों में नियतिमूलक घटनाओं का ही सम्बन्ध होता है इसलिये भी सभी को नियतिजन्म मानना प्रावश्यक है । जैसे यह देखा जाता है कि तीक्ष्ण शस्त्र का प्रहार होने पर भी सब की मृत्यु नहीं होती, किन्तु कुछ लोग ही मरते हैं और कुछ लोग जीवित रह जाते हैं, इस की उपपत्ति के लिये यह माचमा आवश्यक है कि प्रारणो का जीवन और मरए नियति पर निर्भर है। जिस का मरण जब नियतिसम्मत होता है तब उस को मत्यु होती है और जिस का जीवन जब तक नियतिनसम्मत है तब तक मृत्यु का प्रसका बारबार माने पर भी यह जीवित ही रहता है, उस को मृत्यु नहीं होती ॥१॥ [जिसकी-जब-जिससे-जिसरूप में उत्पत्ति नियति से ] ६२ को कारिका में पूर्व कारिका के कथन को ही करते हुये कहा गया है कि जो कार्य विस समय विस कारण से जिस रूप में उत्पन्न होने का निर्यात से निविष्ट होता है वह उसी समय उत्तो कारण से उसी रूप में उत्पन्न होता है। घट आदि कार्यों की उत्पति सी प्रकार वेखी जाती हैं इसलिये इस प्रमाणासिय निर्यात का किलो मी त से कोई भी विकास खण्डम महीं कर सकता, बयोंकि प्रमाणसिख पवार्ष में पाचक सर्वका प्रवेश नहीं होता। यदि यह पूछा जाय कि नियति में क्या प्रमाण है ? तो इसका उत्तर यही है कि नियतरूप विशिष्ट कार्य की उत्पत्ति हो निपति की सत्ता में प्रमाण है, क्योंकि यदि नियतकप से कार्य को चस्पति का कोई नियामक होगा तो कार्य को मियतरूपता आकस्मिक हो जायगी अर्थात किसी वस्तु का कोई नियतरूप मिडम हो सकेगा। यदि यह कहा जान कि-कामे याबमका होता है तावडर्मकाब किसो एक कारण का कार्यतापक नहीं होता. अपित तत्तत् पर्म मिन्न भिन्न कारणों द्वारा सम्पावित होते हैं. और जब उन सभी को के () सर्वत्र मूळपुस्तकादश पीच्यते' इति पाठः ।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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