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या का टीका-विमी विवेचन ]
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मूलम्- न च तत्कर्मधुपं मुर्गसिपाक्यते ।
स्थास्याविममाषेन यत् क्यधिझोपपद्यते ॥६॥ न च माफर्मवैधुर्ये =भोकगतानुकूलादृष्टाभावे, सुगपक्तिरपीश्पते । काम ? इल्याह-या-यतो हेनोः, क्वचित् विचितस्थाने, म्यान्मादिभङ्गभावेन, नोपपद्यतन पियनि । 'दृष्टकारण गुण्यादेव तत्र कार्याभाव' इनि घेत ? नाह तहगुण्यं यषिमित्तम् , नत पत्र का बैगुण्यं न्यायप्राप्तम , तद्धेसोः' इति न्यायान् । नन्वेवं नियमनो इष्टकारणापेक्षा न म्यादिति चेतन स्यादप. सथाविधप्रयत्नं विनापि शुभारष्टेन धनप्राप्त्यादिदर्शनात : कर्मविपाकातऽवर्जनीयनिधिकत्वेनैव नेपा निमित्तत्वष्यपहागन् । अत एव 'दृकारणानामराष्ट्रव्यापकन्यम्' इति सिद्धान्तः । तदुक्तम्
६६ वी कारिमा मे उक्त कपन का फलिता बताते हुये कहा गया है कि 'मह जगत् सुख, पुःख मादि को उत्पन्न करकेही जीवों का भोग्य होता है'घा प्राणीमात्र का अनुभव है। इसलिये यह मानना मावश्यक है कि जगत् मोक्ता के कर्मों से ही उत्पन्न होता है । जगत् को कारणता जीब-कर्मों मैंगो मह मानना इस लिये भी आवश्यक किप्रयवादियों द्वारा बताये गये कारण व्यभिचरित हो जाते हैं, पयोंकि उन कारणों के रहने पर मी कमी कार्य नहीं होता और कभी उन के अभाव में भी कार्य हो जाता है। प्रप्तः यह युक्तिसिद्ध है कि जीवों का पूर्वाजिप्त कर्म ही जगत का उत्पावक होता है ।।६६॥
[ कर्म के विरह में मूगपाक अशक्य ] ६.पों का पका में भी कर्मवाचकही पुष्टि की गयी है और कहा गया है कि भोक्ता के अनुकुल अष्ट के प्रभाव में मुग का पाक भी होता मी बोखता, क्योंकि यह सर्वविदित है कि कई मम ममुख्य जम मूग पकाने चलता है तो पासपात्र आदि कामकस्मात् भंग हो जाने से मूग पाक मही हो पाता । कहा जाय कि पाकपात्र आविहार कारण का अभाव हो जाने से ही ऐसे स्थलों में पाक मोहता हो यह कहना पति महीपाट कारण का प्रभाव भी तो किसी मिमित्तलेही होगा और उसका मो निमित्त होगा वह कोई नष्ट मिमित प्रमाण सिद्ध होने में आष्टापही होगा. अतः उम को पौधे कार्याभाव का ही प्रयोमक मान लिना उचित है, पयोंकि पह ग्याय है-- तोरेवास्लु किन-जिसका अर्थ है कि जो कार्य अपने हेतु के हेतु से सीधा ही। उत्पन्न होता है उसी को ही हेतु माना जाय, दूसरे को क्यों माना काय? इस स्थिति में यह मानना उचित प्रतीत होता है कि काये अपने अभिमान हेतु के हेतु ही सीधे उत्पन्न होता है यदि यह आपत्ति दी जाय कि-कार्य को माक्षात मान से सम्पन्न मानने पर कहीं भी रष्ट कारण की अपेक्षा न हो सकेगी तो इस से कोनि नहीं है. क्योंकि कर्मधार में नष्ट कारण का कोई स्थान नहीं है। देखा भी जाता है कि-कभी सभी विना किसी प्रयत्न केही मनुष्य को विपुलधन को प्राप्ति हो जाती है, मतः इष्टपदार्थों में यदि कहीं किसी कार्य प्रति कारन का व्यवहार होता सोलिये मही कि हण्ट पदार्थ सचमुचकारण है कि यह व्यवहार दम लिये होता है कि कार्य को उत्पत्ति के पूर्व उमका सानिमा प्रजनीय होता