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________________ ! रा. श्री. गावाजः : "यथा यथा पूर्वकनस्य कर्मणः फलं निधानमिवाऽवनिष्ठते । मथा तथा तत्प्रतिपादनाधता प्रदीपइस्तेव मतिः प्रवर्तते ॥१॥" इति । न च विपाकफालापेक्षाणात कालबादप्रवेशः, तम्प कविस्थाविशेषरूपस्यात् । न च कर्महत्वपेशावैयग्रयम् , अनादित्वात् कर्मपरम्परायाः ॥६७|| विपक्षे बाधकमाहमूलं- पिन भोग्यं तथा चित्राकर्मणोऽहेतुतापया । सस्य घस्माद्रिश्चिन्नाव नियन्यादर्न युग्पतं ॥८॥ नया प्रतिनियतरूपेण, चित्रं नानाप्रफारम भोग्यम् , चित्राकर्मणो घटतं, मम्य तसत्कार्यजनकविचित्रशक्तियोगित्वान् । अन्यथा चित्रकर्मानभ्युपगमे अहेतुना म्पाद, 'चित्र माग्यस्य' इत्यनुपज्यते । 'क्वांचाइनरूपमेव, क्वचिच्चानु नरूपमेव, परमाणुयाङ्ताना च शाल्पादिनीजाना शाल्याग्रनुजनकत्यमेघ' इति नियमे परेणाऽप्याटम्यवाऽङ्गाकागत , है। इसी लिये सिद्धान्त यही है कि दृष्ट कारण अदृष्ट के पश्चक होते हैं न कि कार्य के पास्तव कारण । कार्य का वास्तव कारण तो अष्ट हो जाता है। कहा मो गया कि-कोष में धम के समान पूर्वकृत कर्ष का फल पहले से ही विद्यमान रहता है मौर वह जिस जिस रूप से अवस्थित सारे उस उस कप में उसे सुलभ करने के लिये प्रमुष्य की बुधि सतत उच्चस रहती है और उसी जसी प्रकार उसे प्राप्त करने के लिये मातों हाय में दोप लिये मागे मागे बहती है। मियाक कालको अपेक्षा मामने पर इस मत में कालवाव के प्रवेश को पका नहीं की जा सकती क्योंकि काल भी कर्म को एक fशेष अवस्था हो हैं । कर्म के कारणों के विषय में भी चिन्तित होना ग्यथ है क्योंकि कमपरम्परा अनाव है, अतः पूत्र पूर्व कमें से उत्तरोतर कर्म की उत्पत्ति मानने में कोई बाधा नहीं हैं ।।७|| (कर्मविचित्रता से भोग्यधिविधता) ६८वी कारिका में कार्य कर्महतुक है इस पक्ष के विपरीत पक्ष में माषक बताया गया है । करिका का प्रर्थ इस प्रकार है भोग्य पदार्थ प्रसिनियत रूप से अनेक प्रकार के होते हैं अतः उन के कारण को भी प्रनेक प्रकार का होना मावश्यक है क्योंकि कारण के वैचित्र्य-विध्य से ही कार्य में वैचित्र्य-बहुप्रकारकत्व हो सकता है, मन्याचा नहीं । कर्म में बहुविधकार्य को उत्पन्न करने की शक्ति होती है, अतः उस से माविध कर्म का जन्म हो सकता है। यदि विचित्रकर्म को कारण न माना जायगा तो विचित्रकार्य की उत्पति न हो सकेगी । किसी द्रग्य का रूप उभूत होता है और किसी का भमुद्भूत, असे घर, पट पावि का रुप उन्मूत घौर चक्षु प्रावि का रूप अनुषभूत । ग्रह विवि प्रता कारणवधिम्य के बिना नहीं उपपन्न हो सकती । शालि. सब प्रावि के बीज टूट कर जब परमाणु की स्थिति में हो जाते है तब उनमें वालिम्प, घघाब आवि धर्मस्व मही रह जाते क्योंकि प्रध्यत्वध्यायमाति को व्याप्यकातियां परमाणु में नहीं मानी जाती । अत: परमाणुभूत शालि, यवादिनीनों में Aध्यरममाप्य
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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