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________________ [शा या समुपय स्त. ३ श्लोक ३ नघ साध्ये पझेच गोचरान्तद्वयं माऽस्तु, मृदङ्गादिगोचरक्रतिजन्यशब्दादिस्तु पक्षयाई भूत एवं दृष्ट्वान्तोऽग्विनि वाच्यम् , अष्टेनरव्यापारद्वाराऽस्मदादिऋतिद्धन्यत्व सिद्धयाऽर्थान्तरप्रसङ्गवारणाय साध्ये तनिवेशावश्यकन्वे, शब्दादावन कान्तिकत्यसंशधारणाय पझेऽपि तदावश्यकत्वात् , ताशशम्दादिकत तयाषि भमसिद्धये पक्ष तमिवेशेऽशन: मिदसाधनबारणाय साध्ये नभिवेशावश्यकत्वाच्च । एलेन 'स्वजनकाऽदृष्टचनकान्यन्यमप्युभयत्र मारतु' इत्यपास्तम् , माहशकाश्यचालनादिका तयााप भगवासप्रय पर्वा नदुपाक्षाने सागऽप्यावश्यकत्वात् । यदि च 'वजनकाटजनकतेन स्यजनकत्व, मानाभावान् । ति विभा. पते, तदा पक्षे तद् नोपादेयम् ; साध्य तु देयमेव, अन्यथा सान्नरीपज्ञानादीन घणुकाधुपादानाऽमोचस्त्येन घणुकादौ सिमाधनाभावेऽप्युक्तकाश्य चालनादाब दृष्टजनककृतिजन्यत्वमियाऽन्निरापर्वम्तुगत्या स्वोपादानगोसस्कृतिजन्यं यत् सम्माछिन्नभेद कूटयफ्वेन काश्यचालनादेरपि पक्षान्तर्गतयात्' इत्याहुः । (कृति में स्वोपादानगोधरस्व का उचित निवेश) सकर्तृ कस्वरूप साध्य को स्वोपावानगोचर बनकटासनक प्रत्यक्षानि जन्यस्व कप में प्रस्तुत किया गया है। अदि शाम के इस प्रस्तुत रूप में कृति में घोपावामगोचरस्व का संनिवेश न किया जायणा सो मवगवावमजन्य शब्द और वायुगात फुजारात में स्वजनक अनुष्ट का मानक परगाविमोचर प्रत्यक्षाषिजन्यत्व सिरहानले श्रा: मिद्धसाधनहोगा। अतः उस के लिये साक्ष्य के शारीर में कृति बांदा में स्वोपावान गोचरत्व का निवेश आवायक है इसी प्रकार मन्त्रविशेष पाठक स्पर्श से उत्पन होनेवालो कादयान को गति में स्त्र के उगवान कोश्यमान को विषय करनेवाली स्पांमनक कृति का अन्यस्य रहने से और अधोमुष कध्वंचरणाविरूप तप की कृति से उत्पन्न होनेवाले कृागशरीरगत गोररूप में स्वोपाधाम धारीर गोधर कृति जारस रहने से प्रशतः सिद्धसाधन होगा । अत: इस वोष के निवारणार्थ साध्य के शारीर में कृति अंश में स्वजनकामटाजनकस्व का निवेश मायापक है। निवेश से उक्त अंशत: मि साबन पोषक गरिसर जाता क्योंकिकाश्यपाल की गति को उत्पन्न करनेवालो कविपरिणी स्पारिका कृषि सगति के जनक अरष्ट का अनक होती हे अमाक महीं होती है। और पूनम शरीर में गौरूप उत्पन्न करनेवाले अधोमुझ वध्वंचरणापि तप की कृति भो सात रुप के जनक अरस्ट का अनकही होतोजनक मही होती है। अतः महिपको उस गति और कृष्णशरीरगत उक्त गौरकप में स्थोपाबानतोवरस्वजनकाटाजनक कृस्मादि लग्यरक सिद्ध न होने से संबस: सिद्धसाधन नहीं हो सकता है। स संभ में यह प्रश्न हो सकता है कि-"साध्य और पम पोनों ही पारीर में स्वोपावान. गोचरस्व का निवेश न किया जाय और उस निवेश के प्रभाव में मुश्वगायिगोचर कृति से उत्पन होनेवाले वादावि को पन से बाह्म इष्टान्त माना जापा, मस: इस के द्वारा है में साध्य के यभिचार हो का कैसे हो सकती है" ?-किन्तु इस प्रकन के उत्तर में यह कहना पर्याप्त है कि
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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