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________________ स्या का टीका-हिन्दी त्रिवेचन ] दोपः । मन्त्रविमोषपाठपूर्वकस्पर्शजन्यकाश्मादिगमनम्य स्पर्शजन्यायाग स्वोपादनकाश्यगो. चररूपर्शजनकजन्यतिजन्यस्याऽपक्षले नत्र मंदिग्धान कान्तिकत्वं स्यात् , एवं स्वोपादानधरीरगोयरोवंचरणादिनपःकृतिजन्यकालशरीरी गौररूपादौ तन् स्यात् । अतस्तरकोटी 'स्वजनक' इत्यादि, काश्यचालनादिकं तु स्वजनकाऽनफजन्यकृतिजन्यमेवेन्यदोपः । ध्वंस-गगर्नेकवादिवारणाप 'सुमोनम्' इनि, 'जन्यमिति २ | शब्द-फूत्कारादी सिद्धसावनवारणाय साध्ये गोचरान्तम् । उक्तकारथचालनादी तद्वारणाय 'स्वजनक' इत्यादि । नही होगा, क्योंकि उन के जनक अदाट-जनिका मादिगोधर कृति उम के उपायान आकाश और वायुको विषय नहीं करती। अत: वे स्वोपाबानागाधर स्वजनकाअष्टाजनक कृति सम्म भिन्न हो [स्वजनकादृष्टाजनक-पद की सार्थकता] इसी प्रकार यदि कृति में स्वजनका अष्टाजनकत्व का संनिवेश न कर स्वोपायानगोचर कृति जपभिन्नत्य मात्र को पक्षतावच्छेवक का घटक माना जायगा तो काश्य पात्र को बह गति बोमय. विशेष के पास के साप होमेवाले स्पर्श से उत्पन्न होती है पक्षान्तगत न हो सकेगी। क्योंकि यह भी अपने सपाबानभूत काश्यपान को विषय करने वाली पर्श जमक कृति से अन्य है । अतः पक्ष स्वोपावाम गोचर-कृतिमन्यभिन्न नहीं हो सकती। इसी प्रकार कृष्णवर्ग के शरीर में उत्पन्न होनेवाला यह गौर रूप भी पक्षान्तर्गत न हो सकेगा जो अधोमुख और ऊर्ध्व पाव की अवस्था में शारीरस्थापनकप पश्रर्याको कृति से उत्पन होता है, क्योंकि वह भी अपने उपावात कारण पारीर को विषय करने वाली ऊध्य मुख अधःपावारि-सप की कृति से अन्य होने के कारण स्वोपायान गोचर कृति मन्य मित्र नही होता है। फलत: कांप्रय पात्र की उक्त गति और कृष्णवार के उक्त गौर रूप के द्वारा हेतु में साम्यवभिचार का सन्देह होने से अनुमिति का प्रतिरोध हो जायगा और कृति में अब स्वजनक अष्टाजनकारव का निवेश करते है तब यह बोष नहीं हो सकता, क्योंकि करियपात्र की गति कास्यपात्रगोचर स्पोजनक कृति से भरन्ट द्वारा उत्पन्न होती है। और कृष्णधारोर गत उक्त पोर रूप भी स्वोपारामगोचर अधोमुख उध्र्वपादावि रुप तप की कृति से अदृष्ट द्वारा ही उत्पन्न होता है । अत एष उक्त गति और उषप्त स.प स्वोपावासमोर स्वजनक अष्ट जनक कृति में ही जम्य होने के कारण स्पोपाबामगोपर रखनकटष्टाजनककृतिजन्य भिन्न होने से पक्षातर्गत हो जाते हैं। (समवेतत्व और जन्यत्व का उचित निवेश) दूसरा अंधा है 'समवेतत्वा । इस अंश का वातावरवधक कोटि में संनियेयाम करने पर ध्वंस भी पक्षान्तर्गत होणाला । और उसमें साप का बाप होने से पक्षताबमछेदकाइयाछेवेन अनुमितिका प्रसियाब हो जाता है। अतः समवेतत्व बंश का पक्षतावणेवक कोदि में प्रवेश आवश्यक है। तीसरा अंश है जम्मरप-इस अंश का भी पक्षतावाटेवक कोटि में निवेश आवश्यक है। अन्यथा आकाशगत एकरप-परिमाणादि नित्य गुण मो पक्षातर्गत हो जाये और उनमें साधका भाष होने से पक्षतावण्वकावरछेवेन अनुमिति का प्रतिरोष हो जायगा ।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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