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________________ १२ ] [ शा या समुच्चय-न० लो०३ सिद्धसाधनवारणाय तदजन्यान्तम् , ताशकृतिजन्यं यत् यत्स्य तद्भिमन्वं तदर्थः नानी तथा णुकादरुपादानगोषताशकृत्यप्रसिद्धया पसत्याभावासगः । तत्र शब्द-फूकागदपत्रावे संदिग्धसाध्यकत्वेन तत्राग्नकास्तिकत्वसंशयः स्यात , अनः प्रतियोमिकोटी गानरान्तम् । शब्दादेमृदङ्गादिगोचरताशकृतिजन्यत्वेऽपि न स्वीपादानगोवस्तारशकतिजन्यत्वमिति न गावान कारण विषयक ऐमो कृति से अमन्य होता है जो उसके जनक अ को उत्पावक नहीं होतो । ऐसे कार्य को पक्ष बनाने के लिये स्वापायानगोचर स्वजनकाटष्टाजरककृति अगम्य समवेतन्यस्व को पक्षतामोधक मानना आवश्यक होता है। और इस प्रकार के धर्म को पक्षतापोतक बनाने पर सकस कस्वरूप साध्य के स्वरूप को भी कहलमा होता है । फलत: सकतृकत्व का अहोजाता है स्वोषावान-गोचरस्वजनका जनकप्रत्यक्षादिजन्यस्व इसका आपाय यह है कि जो कार्य स्वोपानगोचर और स्वजनपालनककृति से प्रजन्म होते हुये सम होता है तोपादाममाकर और जमाना ठोता है। उत्त मूल अनुमान की इस प्रकार पात्या कर देने पर पासावाछेवक का जो स्वरूप प्रस्तोता है में तीन अंश जसे स्योपादानगोमरस्यजनकष्टाजनकृन्यजन्यत्व. ममतत्व और अन्यत्व । इन में प्रथम अश का त्याग कर देने पर घटादि कार्य भी पक्षान्सर्गस हो जाता है और उन में सकतुं करव सिन है इसलिये प्रयत: मिबसाधन अर्थात पक्षतावच्छेदक मामानाधिकरण्येन साध्यसिद्धि कम गाथाको उपस्थिति से अनुमितिप्रतिरोध की प्राप्ति होती है। इस दोष के परिहार के लिये अममत्व पंत धमाका पक्षताकाडे वनकोटि में समिधेश आवाया है। इस प्रशासनिवेश करने पर पदावि पक्षातगंत नहीं होता है क्योंकि वे स्योपाबानगोचर स्घजमक.अशाजनक कुलाल की कृति से साय होते हैं। अन्यत्वात अश में स्व गर से जन्य को ग्रहण करना अभीष्ट है. अमन्य को नहीं। इसलिये अनन्यस्वान्तमाग का अर्थ है वोपानीघर-यजनक अष्टाजनक कृति से अन्य जो मो हैं सद तब मित्रत्व | याच स्व पर से अजन्य का ग्रहण किया जायगा तो व्यकावि पक्ष न हो सकेगा क्योंकि धकाधि के उपादान को विषय करनेवाली घणुकाविलमकाअष्ट को अजमक कोई कृति प्रसिद्ध नहीं है, इसलिये स्वपद से हपणकादि का प्रहण न हो सकमे से वह स्वोपावान गोचर स्वजनक अरष्टाममक कृत्यायाध से पक्षविषया उपन्या नहीं हो सकता है। फलतः उसकेका रूप में विकर की सिद्धि असंमत हो जायेगी। (उपादान गोचर' पदकी सार्थकता) इस अंश में भी कृति में यदि स्त्रोपावामगोचर विशेषण न देकर स्व-जनक अशष्टाजनक कृतिजन्य भिन्नत्य मात्र कोही पक्षतावच्छेवक को कोटि में निवेश किया जायगा तो बङ्गादिको सजाने से उत्पात्र होने वाला शह और बापु का फुकार शानगंत न हो सकेगा। क्योंकि ममावि चबाने से उत्पन्न होनेवासा त स्वजनक APट के अजनक बजगातिगोचर म बङगाविषावक कृति से जन्म होने के कारण ताहनकृतिजस्य मिन्न नहीं होगा। क्योंकि फुत्कार भी फुरकार के निमित. मून यन्त्र विषयक कृति से जश्य , ओ कृति फूटकारजनक अहट का अजनक है. इसलिये यह भी वजन अदृष्टाजाककृतिजन्य मिन्न नहीं है । अब शब्द और फुरकार पक्ष से हिर्भूत हो जायेंगे तो उम में साध्य का मन्वेह होने से हेतु में साध्ययभिचार का सम्मेह हो जायगा। किन्तु कृति में स्वोपावामगोचरव का निवेश कर देने पर शब्द और फुरकारको पक्षालगंस होने में कोई बाधा
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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