________________
स्या का टीका-हिम्लो विवेचन 1
परे तु- स्वापादामगांचा स्वजनकाऽद्वयाऽजानका या कृतिस्तदजन्य समवेत जन्यं खोपादानगोचरम्बजमकाहजनकान्याऽपगेशज्ञान-चिकीजिन्यम , कार्यस्यात् । घटादावंशतः अनुमान से वावि के अभिमत की सिद्धि नहीं हो सकती । यः यह कहा माय कि-'अक्कुरावि में सकत. कत्व का साह है किन्तु शरीरमन्या का समा मिचित है अतः शारीरजम्यश्व में साध्यसका कारण की व्यापकता का मिश्चय हो सकने से शरीरमायस्थ उपाधि नहीं हो सकता।-' तो यह हक नहीं है योंकि निश्मिल उपाधि होने पर भी अकारादि द्वारा शारीरजन्यच में साध्य व्यापकता का सन्वेस होने से हतियोपाधि का होना अनिवार्य है । यदि यह शंका को जाय-'मविभोपाधि होने से भो कोई वषेष नहीं हो सकता क्योंकि समियोपाधि के व्यभिचारसबह से हेतु में साध्यमिचारका सन्देश हो हो सकता है निश्चय ही हो सकता । और मिनार संदह व्याप्तिमात शिरोमीन होने से हस में मायायाति पा निश्चय हो कर अनुमिति के होने में कोई बाधा नही हो सकती तो यह को नहीं है क्योंकि च्यारित मान के प्रति मिधारनिश्चयवाहप से ठर्णमचारज्ञान को प्रतिबन्धक मामले में गौरव है। अत: लाघव को एमिट से इमिनारज्ञानस्वरूप में हो व्यभिचारण ध्यातिमान का प्रतिन-धक है अत एवं व्यभिचारसंशय से भी व्याप्तिनिश्चय का प्रतिबन्ध हो जाने के कारण सन्धिम्योपाधिका भी अनुमान विरोधिश्व अरहार्य है। घयपि सम्बिम्बोपाधि के व्यभिचारकेश से हेतु में माध्यभिचार का संशय पक्ष में ही होगा, तो भो कोई दानि नहीं है, क्योंकि पक्ष और पक्ष सन्देह के छारा मो हेतु में साध्यव्यभिचार का संशय अनुमान में दो रूप हो सकता है।
यदि यह वाकानो जाय 'पक्ष में साम्य का संशय होने के कारण पक्ष द्वारा सर्वत्र ही हेतु में साध्यध्यमिवार का सन्देह हो सकता हैं. शत प्यभिधार माघ को शनुमान का दोष मानने पर अनुमान मात्र का उन्नाव हो आपणा" लो यह टोक नहीं है, क्योंकि पक्ष में समनिश्चय की पक्ष में है में माध्यभिचार का संशय न होने से मिषाविया से रक्ष में साध्यामुमान हो सकता है. क्योंकि अनुमिति में पक्षताविषया सिषाधरिषाविहविशिष्टमिजमावही कारण होता हैं। फलत: हासेरजन्य-प रूप उपाधि से ग्रस्त होने से प्रस्तुत अनुमान द्वारा श्विर को सिद्ध करने की माझा करना दुराशा मात्र है।''
-किस सिकार काने पर इस अनुमान में शरीरसन्याय को लेकर उपाधिग्रस्तता को शरा। औचित्य सिद्ध नहीं होता । पोंकि कापमामा और ज्ञानादिसामान्य में कार्यन्त्र भोर मानव आद पप से कार्य कारणमा मिचित है, क्योंकि इस कार्य कारण भाव में साधव है। और इस लाव तक के कारमा उपाधिसंवाय कार्यत्व में सामाविअभ्यत्व की मारित के निइन्त्रय में बाधक नहीं हो सकता। सन्धिम्योपाधि से हेतु में साध्यभिचार का सराय उसी का में होता है जब रेनु में साध्यध्याप्तिका निश्वासक कोई अनकलतम हो। और यघि अनुकुल तक रहने पर भो माग्योपाधि से है । मैं साध्यध्यमिवार का संशय होगा तो पोतरत्वरूप उपाधि की शङ्का होमे से पवत में बहक प्रसिद्ध अनुमान का भी उमाश हो जायगा । इस प्रकार विचार करने से प्रस्तुत अनुमान के प्रयोग में कोई दोष नहीं है। ऐसा किसनेक विद्वान कहते हैं।
(सकत कत्व-स्वोपावानगोचरस्वजनकाशाजनकप्रत्यक्षादिजन्यत्व) साम्यविधान कार्य सरक. कार्यस्वात्' इस अनुमान की प्यासपा इसका में करसे है कि महत अनुमान में संपूर्ण कार्य पक्ष नहीं है किन्तु यह का पक्ष ! जो समवेत होता है और अपने