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________________ १०] [ शाबा०-१९०६-१०३ संदिग्धोपाधितासाम्रा ? अब शरीरजन्यन्यमुपाधिः, अङकुराहो साध्यव्यापकता ज्यात्, तदाद्दितयभिचारसंशयेनाऽनुमानप्रतिरोधात् लाघवाद व्यभिचारज्ञानन्वेनैव व्याप्तित्रीविरोधित्वात् पक्ष-तरसमयोरपि व्यभिचारसंशयस्य दोषत्वादिति चेत् न प्रकृते ज्ञानस्यादि कार्यत्वाभ्यां हेतुहेतुमद्भावनिश्वगात लाघवतचतारे तदुपाधिसंशयस्याविवित्वाद अनु कूलनिवार एवं संदिग्धोगावेच्यभिचारसंशयाचा यचरथात्, अन्यथा पक्षतरस्योपाधिशङ्कया प्रसिद्धानुमानस्याऽप्यृच्छेद " P इत्येके । ▸ ་ से कारण मानकर सिद्धसाधन अथवा अर्थान्तर की आपत्ति का परिहार करने के लिये अष्टाद्वारक प्रत्यक्षाविन्यस्य को अथवा विशेष्यतासम्बन्धावत्रि प्रश्पक्षाविष्कारणता निरूपितसमवायसम्बन्ध जन्यश्व को सामानमा आवश्यक है। कहने का आशय यह है कि यदि सामान्यरूप से प्रत्यक्षादिजन्यत्व को साध्य माना जाएगा तो जीवात्मा के प्रत्यक्षादि द्वारा मिसाथ होगा. क्योंकि फोवारमा के अदृष्ट से ही समस्त कार्य को उत्पत्ति होती है। और वह अमीषा के प्रत्यक्ष और कृति में होनेवाले विहित निषिद्ध कसे होता है। अतः कार्यमात्र में पूर्वसृष्टि में होनेवाले जोव के प्रत्यक्षादि की अ द्वारा मला सिद्ध होने से सिद्धसाधन होगा. अनुष्टाऽरक प्रत्यक्षादि जयस्व को साध्य मानने पर इस दोष का परिहार होने पर मी जोव के प्रष्टगत प्रस्थादि को स्वयं द्वारा नष्ट का कारण मान लेने पर कार्यमात्र में जोध के द्वारका विजन्मस्व सिद्ध हो जाने से हो सकता है । अतः समय से कार्य मात्र के प्रति विशेष्यतासम्बन्ध से कर्तृगत उपावान का प्रत्यक्ष उपादान में कार्य की विकीर्षा ओर उपवासविषयक कृति कारण होती है। इस कार्यकारणभाव के आधार पर विशेष्यत्वसम्बन्धाय छत्रप्रायः विकिरण सामि विससमवायसम्बन्धानि जन्यश्व को साध्य मानना आवश्यक है । ऐसा मामले पर पूर्वष्टिगत जीवात्मा के प्रश्यभादि के द्वारा मितान नही हो सकता, क्योंकि कवि के उपजानकारण परमाणु आदि का अध्यक्ष जोव को पूर्व सृष्टि में भी नहीं होता और पक्षि पति अौकिक प्रशासत्ति से परमाणु आदि का प्रत्यक्ष जोष को माना जाय तो यह नयोग सुटि में होनेवाले भाषि का विशेष्यस सम्बन्ध से कारण न होगा क्योंकि विशेष्यता कामसमानकालोन होती है। अतः नवीन सृष्टि के पहले पूर्वसृष्टि का जो बगलप्रत्यक्ष विशेष्यता से इंचणुकावि के उपादान कारणों में नहीं रह सकता इसलिये ओवामा के प्रत्यक्षादि को लेकर कार्यमात्र में इस परिष्कृत प्रत्यक्षार्थिभ्यरूप लाक्ष्य के सम्म होने से जीवात्मा के प्रत्यक्षादिद्वारा सिद्धसाधन या अर्थान्तर नहीं हो सकता | [ शरीरजन्यत्व उपाधि शंका का समाधान ] इस सभ्यर्भ में यह का हो सकती है-कार्य हेतु शरीरजन्म रूप उपाधि से प्रस्त है क्योंकि साध्य घटपटादि जिम कार्यों में सिद्ध है उन में शरीरअन्यस्थ भी सिद्ध है। अत: पारीजन्य सकतु कामरूप साध्य का व्यापक है। एस कार्य के आश्रय अरविन्यस्थ का अभाव होने से यह कार्यत्वरूप साधन का अध्यापक भी है। अतः उपाधिप्रत होने के कारण प्रस्तुत
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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