________________
स्या का टीका-हिन्दी विवेचन]
[१९
युक्त्या तु बाध्यते, यस्मान् प्रधानं निष्णम अप्रच्युताऽनुत्पम-थिरकस्वभाषम् इष्यतेसांबारङ्गीक्रियते अस्य-प्रधानस्य, तथाषाऽमच्युतौ च प्रधानत्वाऽप्रन्युनों घ, महदादि कथं भवेत ? पूर्वस्वभावपरित्यागापूर्वस्त्र भायोपादानापामेर हेतु-हेतुमदावनियमात् । अङ्गदादि परिणाम नाशेनैव कुण्डलादिपरिणामोत्पाददर्शनादिति भावः ॥२२|| -.. ... . ...--.-... . -. ... -. . -
२२ वी कारिका में 'सांख्यवणित मत कोरी प्रदामात्र से ही क्यों उपादेय है' इस को स्पष्ट किया गया है । फारिका का प्रथं इस प्रकार है
युक्तिपूर्वक विचार करमे पर सांख्य का मत प्रमाण से बाधित हो जाता है क्योकि सोल्य शास्त्र के विद्वानों ने प्रधान-प्रकृति को नित्य माना है और नित्य उसी वस्तु को कहा जाता है जो सवा एक रूप में स्थिर रहे। जिस का कमी भी न किसी रूप में सालन हो और न किसी रूप में उत्पादन हो जैसे सांस्यसम्मत पुरुष । प्रतः प्रधान भी इसी रूप में नित्य होगा। फलतः प्रयानस्पप से उस का म्खलन न होने के कारण उस से यह प्रावि तत्वों की उत्पसि न हो सकेगी. पोकि कारण होने के लिए पूर्वस्वरूप का त्याग और कार्य होने में पर्व स्वकार मारण माया होता और प्रशद बाजूयंद्र प्रादि के रूप में स्थित सुवर्ण को कुण्डलाधि का कारण होने के लिए प्रशादावि स्वरूप का परित्याग और कुण्डलाधि स्वरूप का पहण करना पड़ता है। अतः प्रधान को भी महत
___एक आधुनिक विद्वान मा पर सिग्यता है-efrax की आपत्ति किसी गलतफहमी पर भाधारित प्रतीत होती है. क्योंकि यस्तुम: सांख्य दार्शनि की 'प्रकृमि' नित्य होते हुए भी रूपान्ताणशील ठोक पमी प्रकार है जैसे कि जैन-दर्शन की मान्यतानुमार विश्व की समी मनु-चेतन वस्तुएँ जित्य होते हुए भो रूपान्तरणशील है।" वस्वतः भा.भी त्रिभद्रसूरि की कोई गजमफहमी नहीं है कि सन को यह नित्यना का नहीं एकाननिया का स्वंशन अभिप्रेत है जो २४ी कारिका में स्पष्ट है। प्रतनी सम्म धान का न मम पाना बड़ी तो गलतफहमी है।
मी प्राय विद्वान ने शास्त्रानि मुडमय के हिन्दी अनुषाव की प्रस्तावना में अपनी नमून विद्वत्ता का जो प्रदर्शन किया है उम का एक यह भी उदाहरण है-बर लिखता है-हरिमन ने मांख्य दार्शनिक की छूट दी है कि यदि वह अपनी प्रनि का भणन सीक भी प्रकार करे जेसे कि जैन दर्शन में कमप्रति का (अर्थाम् 'कर्म' नाम वाले मौसिक तत्व का) किया गया है तो उसका प्रस्तुत प्रन निषि पन जायेगा, ... . लेकिन यह एक विषारीय बात है कि सग्य मार्शनिक की 'प्रकृति' एक मथा षस के रूपान्तरण की परिधि समूचा जर जगन है, जय किन बान की 'कर्म कृतियां अनेक है तथा उनके रुपानरण की परिधि जम जगत का एक माग मात्र है।"
सज्जनों को लोभना चाहिये फ्रि-मा. श्री हरिमद सूरि का अमिमाय यह है कि 'सांसय प्रति को सारे जगत का सपादान कारण मानता है इस के स्थान में निमित्त कारण मान लिया जाय तो मेन मस यानी वास्तविकता के साथ उसका मी मेन हो आय। इस ऋजु अभिप्राय न समझ कर इम शिवाज ने जो संट लिख दिया हैषा फेवल वाचावंबर के सिवा और क्या है? इस विद्वान ने सो से अनेक असमञ्जप्त विधान स की प्रस्तावना में कर काले है। पास में मी अस्पड होने पर भी घमंडी भौर, महामहीम पूर्वाधार्यो' के गौरव को गिराने की धृष्टता काना ही जिनका जीवनन्त्रत हैन पानि पंडितों से भारत के पुजा भावि की क्या मासा करना।