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________________ स्या० का टीका-हि-वीविवेचना ] जन्यत्तापसिर्वाधिका, गगनमहसाधिकापकर्षस्य बहत्वजन्यतावच्छेदकत्वादिति चेत् । न, परमाणुपरिमाण साधारणतयाऽस्य कार्यताऽनयाछेदकत्वान , अटिमहच्यावधिकोकण सम सफिर्यात् ताजात्यसिद्भश्र, अस्तुतः प्रदीपप्रभाया वात्मना संकोष विकानाम्यो परिमाणभेदस्याऽधूपगमेन सवा नित्यमहत्याऽसिद्वश्च । ___चात्मनो विभुत्वे स्षम्मिन क्रियादिप्रनीतिः, तीर्थगमनादेष्टहेतुत्यश्रवणादिक घोफ्पादनीयम् १ । कथं बात्मनः सर्वगतत्यान् स्वशरीगदन्यत्रापि न ज्ञानाद्युत्पादः १ 'शरीगकि-प्रारमा विभु है क्योंकि वह नित्य महत्व का प्राश्रय है । जो नित्य महत्त्व का प्राश्रय है वह विभु होता है जैसे माकरण । 'प्रतप्रात्मा को विभु मानना हो युक्त है। और इसी कारण प्रात्मा में शरीर के समानपरिमाणता का प्रमष भ्रम है। भ्रम से विषय की सिद्धि मशी होती प्रतः प्रारमा का मूर्तस्व प्रसंभव है- किन्तु यह पाया ठीक नहीं है क्योंकि प्रात्मा मे नित्य महत्व होने पर भी उस में अपकृष्ट परिमाण मानने में कोई बाधा न होने से नित्म महस्व से विभुत्व का अनुमान प्रयोजक है। 'मात्मा के परिमाण को अपकृष्ट मामले पर उसे अन्य मानना होगा, क्योकि गगन के महत्व से अपकृष्ट परिमाण मवयवात बहुत्य से अन्य होते हैं यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्राकास के महत्त्व से प्रपाल लानु के परिवार में समय लग : मांधार है। और प्राकाशगत महस्व से घटाविगत महत्त्व में जो अपकर्ष होता है उसे जाप्तिस्यरूप न मान सकने के कारण वह प्रकाशयत महस्व से अपकृष्ट समो परिमाणों में प्रवयव बहत्त्व की जन्मताका प्रवच्छेवक नहीं हो सकता। उक्त अपकर्ष को जातिस्वरूप इसलिये भी नहीं माना जा सकता कि-उस में श्याकगत महत्वायधिक उत्कर्ष के साथ सांकर्य हो जाता है। जैसे त्र्यणुकगत महत्वावकि पर्ष माकाश परिमाण में है किन्तु उस में प्राकाशगत महत्वाधिक प्रपरषं नहीं है । एवं यह अपकर्ष परमाणू और तुघणुको परिमाण में है किन्तु उस में पशुक महत्वावधिक उत्कर्ष नहीं है मौर घटावि में ग्यणुक महत्त्वावधिक उत्कर्ष मोर प्राकारामास्वायधिक अपकर्ष दोनों विद्यमाम है। प्रतः सकिर्य होने के कारण उक्त अपकर्ष के जातिझप न हो सकने से उसे प्रवयवात महत्व की जन्यता का प्रवन्धक मानना असंभव है। और सच बात तो यह है कि प्रास्मा का महत्व एकान्सरूप से निस्य हो भी नहीं सकना क्योंकि पारमा प्रदीप की प्रभा के समान संकोच-विकासशील है पप्त: उसका परिणाम परिवत्तित होता रहता है । और परिवत्तित होनेवाली वस्तु एकान्तनित्य हो नहीं सकती। प्राश्मा को विभु मामने में माधक भी है और वह है मारमा में क्रियावि को प्रताति, पो प्रात्मा को विभू मानने पर महाँ उपपन्न हो सकती। इस के मतिरिक्त तीर्थगमनादि में शास्त्र जो पुण्यजनकता का प्रतिपादन करता है उस को मो उपपसि महीं हो सकती, क्योंकि विभु का तीर्थगरम कसेही सकता है? मात्मा अपने शरीर को छोडकर प्रम्य प्रव्य में ज्ञानाधिमान नहीं होता। किन्तु यदि उसे सवंगत माना जायगा तो यह बात न बन सकेगी क्योंकि बले अपने शरीर के साथ उसका सम्बन्ध होता है उसी प्रकार मन्य व्यों के साथ भी उसका सम्बन्ध होता है। यदि यह कहा जाय किमानादि के प्रति पारोर कारण होता है प्रतः शरीर भिन्न तथ्य में पाएमा सानाधिमान नहीं होता-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर भी प्रात्मा को मय शरीर में
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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