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________________ १३. ] [शा वा समुपय-स्स० ३ श्लो० ४३ 'अस्तु तहि नमसो घटादिनेव कर्मणा जीवस्य संवन्धः, ससोऽनुग्रहोपघानौ तु तम्य नमस्वदेव न' इत्पत आह-लपघातादिभाषश्व उपघाताऽनुग्रह भाषश्च मूर्तीया अपि कर्मप्रकृतेः सकाशात् सुरादिना=सुरा-चाकी-घृतादिना ज्ञानस्येष युक्तः, अझाङ्गिभावलक्षणसंबन्धप्रयोज्यत्वात् तस्येति भावः । ननु 'सर्वमिदमात्मनोऽवि भुन्चे संभवति, सदेय पाद्यापि न सिदिमिति चेत् । न मारीरनियतपरिमाणवस्त्रेनचाऽत्मनोऽनुभवानु , मूर्त्तन्यमंशयस्य शानप्रामाण्यवंशयादिनोपपत्तेः । न च द्रव्यप्रत्यारवाचछिन्ने हेतोमवस्याऽऽत्मनि सिद्धी तस्यावषयमाघजन्यवन नित्यत्वे 'आत्मा विभुः, नित्यमहचाव , कायन्इत्यनुमानात प्रम्य टिममेट यूमिति वाध्यम् ; नित्यमहत्वेऽप्यपष्टपरिमाणवश्वे बाघकाभावेनाऽप्रयोजकत्याच | 'अपकृष्टन्धे नस्य सकेगा । धौया पक्ष भी प्राशन हो सकेगा, क्योंकि घट और पाकामा का संयोग मवि घरस्वभाव एवं प्रकाश स्वभावनगा तो उस में किसी प्रश्य स्वभाव होने की कल्पना मी शक्य न होने के कारण वह असम हो जायगा । इस प्रसङ्ग में पाक हो सकती है कि-जैसे घटाव के साथ प्रकाश का सम्बन्ध होने पर भी घटादि के अनुग्रह सौर उपघात का आकार में कोई प्रभाव नहीं होता उसी प्रकार कर्म कृति से जोय का सम्बन्ध होने पर भी उससे मास्मा में कोई अनुग्रह एवं उपयात नहीं होना चाहिये तो पाह ठीक नहीं है पयोंकि कर्मप्रकृति के मूर्त होने पर भी उस में उपधात और अनुग्रह होता है इसलिये उसके सम्बन्ध से अरस्मा में उपधात पौर अनुग्रह हो सकता है । इसको समझने के लिये मद्यावि का इण्टाल उपादेय है । प्राशय यह है कि जैसे मनुष्य में मच-एवं शाही घृत प्राधि के सम्पर्क से उस का शान मद्य और घृत के वोष मौर गुणों से विकृत पौर संस्कृति होता है उस प्रकार कर्मप्रकृति के सम्बन्ध से प्रास्मा भी उस के उपघात घऔर अनुग्रह से उपाहत मौर अनुगृहीत हो सकता है । यह उपधात और अनुग्रह प्रकृति और प्रारमा में मनाङ्गीमावरूप सम्बन्ध के मासे होता है और मूल प्रकृति उस का मन होती है । घटावि और पाकाश में प्रङ्गाली भान सम्बन्ध नहीं होता । अतः पदाबि के उपधात मोर अनुग्रह से भाकावा में उपघात और अनुग्रह नहीं होता। ऐसा मानने पर माझा हो सकती है कि-'यह बात तमी मुक्तिसङ्गत हो सकती है जब प्रात्मा को मषिभ माना जाप, किन्तु प्रविभुरव उस में सिद्ध नहीं होता अत: मूल प्रकृति और श्रात्मा के बीच शिक्षित समय नहीं हो सकता' तो यह टीक नहीं है, क्योंकि प्रास्मा में शरीर के समामपरिमाणप्ता का अनुभव होता है। इसलिये पारमा का प्रविभुव मनुभवसिद्ध है। इस अनुभव के होने पर भी जो कभी किसी को धारमा के मुस्वि विषम में सन्चेह होता है वह इस अनुभव में प्रामाण्य का सन्देह होने के कारण होता है । वस्तुत: उप्स में कोई मूर्तरव का संशयापावक धर्म महीं है। [प्रात्मविभुत्व को शंका का परिहार] । घडा हो सकती है कि-'ज्य प्रत्यक्ष के प्रति महत्व कारण होता है प्रतः प्रात्मा के प्रत्यक्ष के अनुरोध से उस में भी महत्व मानना होगा। और वह महत्व अवयवगत महत्वावि से उत्पन्न न होने के कारण निस्प होगा। प्रस: नित्य महस्व से भारमा में विश्व का इस प्रकार मनुमान हो जायगर
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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