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शा० ८० टीका-हिम्पीविवेचना ]
[ १२५ न च सहचारमाप्रदर्शनादुक्तनियमोऽपीत्याइमृलम्-मूर्तयाऽप्यारमनो योगो घटेन नमसो यथा ।
उपचाताविमावरच ज्ञानस्येष सरादिना ॥४३॥ मूतपापि-प्रकृल्या आन्मनो गो:: हायति' इति । । .. १९६.६ . न नमः । 'घटेन संयुक्तमपि नमो न घटस्यभायन यातीति न दोष' इति चेम् । स संयोगः कि घटस्वभावः, नमःस्न भावः, उभयस्वभावः, अनुभयस्य भायो पा ? आधयोरुमयनिरूप्य. खानुपपतिः । तृतीये च बदतो व्यापासा, घटस्यमावमयोगाचया नभसो घटस्वभावत्वाद । चतुर्थे त्वनुपाख्यत्वापतिः, इति न किश्चिदेतत् । चाहिये किन्तु उत्पावनीय ज्ञान में सम्यक्त्व का संपावन करने के लिये उसे विशेष-अन्यनम सम्मत पात का भी उपवेषण करना चाहिये ।।
इस प्रकार यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि प्रारमा को देह स्पावि की पनु मूति बेह और पात्मा की अन्योन्यम्याप्ति-एक में दूसरे के प्रमुप्रवेश से ही होती है। अतः कार्य को प्रका. रान्तर से उपपत्ति न होने के कारण जनशास्त्रोक्त प्रकार से ही प्रात्मा में बन्ध मोर मोक्ष का होना मुक्तिसंगत है।
(मृतं और अमर्त के सम्बन्ध की उपपति) । ४३ वी कारिका में यह बताया गया है कि-दो वस्तुषों के केवल सहचारमात्र से उनके धर्मों की एक दूसरे में अनुभूति का निपम नहीं बन सकता। किन्तु उसके लिये वस्तुमों का प्रन्योन्यामकत्व पाया है
कारिका का अर्थ इस प्रकार है-प्रभूर्त आस्मा का मो मूर्त प्रकृति के साथ सम्मन्ध हो सकता है। जैसे प्रमूर्त प्रकाश का घटके साथ । यदि कहा आप कि-'माकाश घट से संयुक्त होकर भी घटस्वमाय महीं होता इसलिये उनका सम्बन्ध तो बुद्धिगम्य है किन्तु प्रकृति और प्रात्मा का सम्बन्ध तो प्राप ऐसा मानते हैं जिस से प्रारमा प्रकृतिस्वमाय बन जाता है। अतः प्रकृति और प्रात्मा के बीच अभिमत सम्बन्ध के मनुफूल यह दृष्टान्त नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इष्टात और बार्दान्तिक में पुतिया साम्म नहीं अपेक्षित होता । मसः प्रकृति सौर प्रास्मा में घदीर प्रकाश का पूर्ण साम्यन होने पर भी 'मर्स के साथ प्रभूतं का सम्बन्ध संभव है इस बात को अवगत कराने के लिये तो यह दृष्टान्त हो हो सकता है। पट माकाश के संयोग से जो प्राकाश को घटस्वभावसा या घंट को माफाशस्वभावता नहीं होती उसका कारण यह है कि उन दोनों का संयोग इसके लिये समर्म महीं है, जैसे घटाकाश संयोग के सम्बन्ध में यह प्रान उठता है कि वह संयोग घटस्वभाव है या माकाशस्वभाव है प्रसवा घट-माकामा उभय स्वभाव हैं किपा अंनुभम स्वभाव है? पहले दो पक्ष माग्य नहीं हो सकते क्योंकि उन पक्षों में वह संपोग घट-पाकामा उभय से निकाय न हो सकेगा, क्योंकि घटस्वभाव प्राकाश और माकायस्वभाव घर से निरूपम नहीं होता। और तृतीय पक्ष तो कथन मात्र से ही व्याहत हो जाता है. क्योंकि यदि यह संयोग उभय स्वभाव होगा तो प्रकाश में घटस्वभावात्मक संयोग रहने से प्रापाश घट स्वभाव हो जायगा फिर पटाकावा के प्रभिन्न हो जाने से उमय का मस्तित्व ही नहीं सिद्ध होगा। प्रतः संयोग को उमय स्वभाव कहना उपपन्न न हो