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________________ १८] [ शा० पा समुच्चय स्व० ३.खक ४२ 'दट्टियस्स आया बंधा फम्म फलं च वेएछ । विझ्यस्स भावमेतं ग कुणइ ण य फोर वेपद ॥ मं०.५१] दवालियरस नो पेव कुणद सो चेष व्या नियमा। अपणो करे अण्णो परिभुजा पन्जवणयस्म ॥ [में-५२] जे पयणिज्जविअप्पा संजुर्जतमु होति पासु । सा ससमयपपणप्रणा विस्थायरामायणा अण्णा ॥ [मं०-४३] परिसज्जायं तु पहुच जाणो पणविज्ज अण्णवरं । परिफम्मणानिमिसं दाएहा सो बिसेपि ।। [सं०-४] तस्माद् देहात्मनोऽन्योन्यध्यातिजैव देहस्पादिसवित्तिरिति सिद्धस् । इप्ति हेतोः, वन्वादि संगतं-पुक्तम् कार्यान्यथानुपपत्तेः ॥४२।। •--- और इन्नियजन्यज्ञान प्रशेषपचार्य का प्राहक नहीं होता है। इस प्रकार स्याद्वाप का मत ही पुक्ति संगत है। जो कथन परस्पर निरपेक्ष जयसूलक होता है वह श्रोता की बुद्धि को अयुत्पत्याधान रुप निमित के बिना प्राहा नहीं हो सकता । क्योंकि बस्तु अनेकान्तिा होती है और नय एकान्ताष्टिरूप होता है अतः वा मन्यनय से निरपेक्ष होकर वस्तु के मयार्थरचस्प को प्रस्तुत नहीं कर सकता। अंसा कि 'दयट्टिम्स प्रादि कारिकामों में स्पष्ट है। कारिकाओं का प्रथं इस प्रकार है-व्रज्यास्तिक मय की इष्टि ले प्रारम् । कर्मवश्व को उत्पन्न करता है और उसके फल का अनुभव भी करता है किन्तु पर्यायास्तिक नय की दृष्टि से प्रास्मा माघमात्र होता है वह अल्पकालिक होने से न चिरस्थायी कर्मबन्ध को उत्पन्न करता है म वही उसके फल का अनुभव करता है। प्रत्यास्तिक नय की इस्टि से जो कर्म करता है नियम से वही फल का मोक्ता होता है, किन्तु पर्यायास्तिक नयको दृष्टि से कम करने वाला मामा वसर होता है और फल का मोक्ता पूसरा होता है क्योंकि कर्मकाल का प्राविमपर्माम भोगकाल में नहीं रहता इसोलिये पर्यायमेव से प्रास्म मेव हो जाता है। स्वास्तिक और पर्यायास्तिक दोनों का प्राश्रय लेकर जो विकल्पवचन कहे जाते हैं उससे प्रपने सम्यक प्रवचन का परिज्ञापन होता है. तीर्थकर का प्रबमान नहीं होता। उपवेष्टा को उपदेश्य पुरुष के प्रति उपसुपत मपों में किसी मो मम के माधार पर वस्तु के स्वरूप का ज्ञापन करता १ ग्यास्तिकस्याऽस्मा वनति कर्म फलं च पयसि । द्वितीयम्य मापमार्च, न कीविन कोऽपि चेदयति ॥५१ अध्यास्तिकस्य य एन करोति एव वेदयति नियमात् । अन्य करोत्ययः परिभुक्ते पवनयम्य ॥१५॥ ये अपनीयधिकल्पाः संयुज्यमानयोभंवरयेषयोः । सायसमयप्रकापना तीर्थयराबासमाSPAL IN पुरुषमा सु प्राप्तीत्य नायकः महापदायतरन् । परिसणानिमितं पशयेत् स पियोधमपि ॥५४॥
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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