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[ शा. वा. समुञ्चन्न स०३-श्लो०३०
युक्त तत्, अन्यथेदत्वापच्छेदेन मुखभेदग्रहाऽभावान् । 'इदं मुखम्' इति प्रतीसेः कश्चिदुपपादनेऽपि 'इदं मुखप्रतिविम्यम्' इनि प्रतीतेः कथमाघुपपादयितुमशक्यत्वात् । मुखश्रमाधिष्ठानस्वरूपमुखप्रतिविम्बत्वम्य प्रागेवाऽग्रहात , 'आदर्श मुखभनिनिम्नम' इत्याचाराऽऽधेयभायाध्यवसायानुयपश्च । एतन 'मुखे घिम्यत्वमिवाऽऽदर्श एवं प्रतिविम्बवं मुखसानिध्यदोषाऽभावादिसामग्र्याऽमित्यज्यते' इति निरस्तम् , बिम्बोत्कर्षानुपपत्ते, प्रतिषिम्बन्वाइप्राहकसामग्र्या पत्रादर्शभेदभ्रमहेतुत्वेन 'अयं नाऽऽदशी, किन्तु मुखप्रनियिम्मम्' इति सार्व
पारमा ममूरी है। इसलिये बुद्धि सत्य में उसके प्रतिविम्ब का सवय मुक्तिसङ्गत नहीं हो सकता क्योंकि जो मध्य मूर्त एवं छायावान होता है यही किसी मास्थर में अपने बाकार का प्रतिविम्वक तथ्य को उत्पन्न कर सकता है जैसा कि 'सामा उचीयाः' इस ऋषिप्रणीत गाथा में कहा गया है । गाया का अर्थ यह है कि दिन में किसी ममास्यरतव्य में श्यामवर्णा और रात्रि के समय कृष्णावण दाया होती है। वही जब मास्वरद्रश्य में प्रतिबिम्बित होती है । तब अपने द्रव्य के ही वर्ण में विखाई देती है। इस गाथा से स्पष्ट है कि छायावान मूर्त ध्रव्य का ही भास्बर पब में प्रतिदिन होता है । प्रत प्राधाहीन अनुत पारमा का एति में प्रतिबिम्ब मानना सङ्कत नहीं हो सकता 1 छायावाम् मूतं वध्य भास्वतध्य में अपने समाम प्रतिबिम्ब दश्य यो जस्पा करता है। यह मानना हो मुक्तिसङ्गनात है क्योंकि यवि छायावा मूर्त द्रव्य से भास्थर व्रव्य में उसके सहश मये प्रतिबिम्ब द्रष्य की उत्पत्ति न मानी जायगी किन्तु भास्वर तथ्य को बिम्ब मूक्त स्य के समकाधिष्ठान मात्र माना जायगा तो वर्पण में मुखका प्रतिचिम्न होने पर जो 'वं मुखम्' या प्रतीति होती है उसकी उपपत्ति तो हो सकती है, क्योंकि इन मुखम् इस प्रकार मेवपहन रहने के कारण व मुलभ इस प्रतीति के होने में कोई बाधक नहीं हो सकता, किन्तु अपंग में मुख का प्रतिविम्व होने पर 'इवं मुखप्रतिविम्मम्' यह मी प्रतीति होती है जिसका उपपादन महीं हो सकेगा। क्योंकि यदि वर्पण में प्रतिविम्ब मुखको उत्पत्ति न मानी जायगी तो मुख का प्रतिबिम्बत्व ओ मुलभ्रम का अधिष्ठानत्वरूप है वह प्रतिबिम्ब काल में गृहीत नहीं है अतः 'इदं मुखप्रतिबिम्बम प्रतीति का होना अशष्य है। और यदि प्रतिबिम्ब को प्रख्यात्मक न माना जायगा तो 'पावों मुखप्रतिबिम्बम' इस प्रकार अपंग मोर मुखप्रतिबिम्ब में प्राधार प्राय माय की प्रतीति भी न हो सकेगी, क्योंकि प्राय के प्रभाव में केवल प्राधार मात्र से प्राधार-प्राय माव की प्रतीति नहीं हो सकती है।
इस सम्बन्ध में कुछ लोगों का यह कहना है कि-वर्पण में मुष का प्रतिबिम्ब पटते समय प्रतिविम्बात्मक किसी नमे द्रश्य की उत्पत्ति नहीं होतो किन्तु मुखसानिम पीर बोषामावादि सामग्री से मुख विम्बरथ और 'दर्पण में प्रतिबिम्बत्य को अभिव्यक्ति होती है किन्तु यह 'मी ठीक नहीं है. क्योंकि इस पक्ष में प्रावर्श ही प्रतिबिम्ब कहा जायगा । मत: प्रादर्श मोर प्रतिविम्य में प्राधार प्राधेय माव की उक्त प्रतीति की उपपत्ति इस मत में भी न हो सकेगी। एवं बिम्ब के उत्कर्ष से प्रतिबिम्ब का उत्कर्ष भी न हो सकेगा। प्राशय यह है कि वर्पण में छोटे मुख का योटा प्रतिविम्ब पीनाता है और पडे मुख का बडा प्रतिविम्च वोखता है। यदि प्रतिबिम्ब नाम के नये प्रत्य की उत्पत्त नहीं होगी फिन्तु प्रादर्श में ही प्रतिषिम्वत्य को अभिव्यक्ति मानी जायगी तो प्रतिबिम्न में सिम्माधीन अपकर्षउत्कर्ष की उपपत्ति म हा सकेगी । पीर प्रतिविम्ब के समय 'श्रमं न प्राय:'-यह पंण नहीं हैं किन्तु
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