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________________ [ २९ पाटीका और हिन्दी विवेचना ] 1 जननानुभवानुपपत्तेश्च । न च प्रतिविम्वम्य द्रव्यत्वे सावत्रित्यानुपपतिः प्रतिविग्वधर्मस्थव महच्यवत् सावधिकत्वात् । न चाश्रयनाशे तमाशानुपपत्तिः त्रिनिधाननिमित्तजनितस्य तस्य नाशेनैव नाशसमयात् । न चैवमनन्तप्रतिविम्पोत्पशिनाशादिकल्पने गॉग्धम्, माया तिम्ि क्वान्दोषादिकल्पनेतचैत्र गौरवात् अनुभवापापानि अधिकमाकरे । स्फटिका लहिल्यापि पद्मरागादिनिधिवन्य परिणामविशेषः, साक्षात्संबन्धेन तत्प्रमीतो परम्परासंबन्धस्थातिप्रसक्तत्वात् स्फटिकादिनिष्ठतया लोहिताश्रयमं सर्गस्य साक्षात्संबन्धेन भ्रमर तत्र विशेषदर्शनादेरुले अकल्ये, परंपरायचन्वेन लोहित्यमानियामक स्वादिकम्पनं चातिगवात् सहित्यमात्रजनकत्वकल्पनाया एव न्याय्यत्वात् अभिभूताइनभिभूतरूपः समास्याऽनुभवसिद्धत्वेनाविरुद्धवाद, नियतारमनिरासाच्चेनि अन्यत्र बिस्तर: 1 > न हो सकेगी। मुखका प्रतिधि है। यह साधजमीन अनुभव होता है । इस अनुभव की भी उप क्योंकि प्रतिविम्बत्व की ग्राहक सामग्री हो श्रादर्शके व का हेतु होती है। अतः प्राव के भवभ्रम के साथ प्रतित्रित्व का ज्ञान होना संभव नहीं हो सकता। -' 'प्रतिक को प्रतिरिक्त मध्य मानने पर उस में विश्वावधिवत्य न हो सकेगा प्रर्थात जब तक विश्व हे तब तक उनका अस्ति न होगा के भाव में भी उस के अस्तित्व की प्रक्ति होगी यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रतिबिम्म विध्यावधिक नहीं होता किन्तु उस का प्रतिबिम्बत्वरूप धर्म हो सालिक होता है । प्रर्थात् बिम्ब के न होने पर प्रतिविम्ब का प्रभाव नहीं होता । किन्तु प्रतिदित्य की बुद्धि निरुद्ध हो जाती है, क्योंकि प्रतिविम्व के प्रण में बिम्ब का सविधान कारण होता है। इसे महत्व (महत्परिमार ) के दात से समझा जा सकता है जैसे जिस द्वय में जिस प्रटको अपेक्षा महश्व की प्रतीति होती है उस य के मात्र में महत्वेन प्रतीत होनेवाला मध्य का प्रभाव नहीं होता अपितु महत्व को प्रतीत का निशेध मात्र होता है। अतः जैसे महत्व का प्राश्रयभूत द्रव्य लघुथ्य से सावधिक नहीं होता किन्तु उस का महत्व हो जरा से साबधिक होता है उसी प्रकार प्रतिबिम्बाविस्रवधिक नहीं होता किन्तु उस का प्रतिविम्व रूप धर्म ही बिग्यावधिक होता है। विनाश से प्रतिविम्यक प्रथम के नाश की अनुमति भी नहीं हो सकती, क्योंकि प्रि fare निधान रूप निमित्त से उत्पन्न होता है श्रतः होने पर उस निमित का नाश होने के भाषण प्रतिकिय का मारा हो सकता है क्योंकि रिल का ताश कि के नाश का कारण होता है। अतिरिक्त प्रतिविम्बकको उत्पान पर प्रतिक को उत्पत्ति और उन के नाश प्रावि की कल्पना में गौरव होगा' यह मो नहीं कहा जा सकता क्योंकि प्रतिधि को विस्वधन माननेवाले लांख्य को सत्य से अतिरिक्त भ्रमजनक अनंत दोष को कपमा श्रावक होने से सांख्या में हो गौरव है । और उस मत में बिम्बभूत मुख से भिन्न प्रतिविम्यमुख ने के सर्वजनसिद्ध अनुभव का सख्यमत में अपलाप भी होता है इस विषय का अधिक विचार आपर ग्रन्थ में है । हमक स्फटिका में जो लीशियामि प्रतीत होता है वह मी पद्मरागादि areer होनेurer स्फटिकावि का परिणामविशेष ही हैं के संधानसे और स्फटिक में उसकी प्रतीति साक्षात्
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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