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स्या का टीका-हिन्दी विरेचन ]
[१॥
तिप्रसङ्गात् । 'येष्टात्यमुपाधि रिति येत ? किं तत् ? 'प्रयत्नजन्य क्रियात्यमिति चेत् । न तत्रैष तस्थाऽनुपावित्वान । 'हिता-अहितप्राप्ति-परिहारफलत्वमिति चेत् । न, विषमक्षणा-ऽहिलयनायव्यापनान् । 'शरीरसमवापिक्रियात्वं तदिनि चेत ! न, मृतशरीगक्रियाया अतथात्वात । 'जीवत' इति पद ? म, ने ला जथामात् । विद्यान्तराऽप्रेरणे सति शरीरकियात्वं तत्, शरीरपदोपादानाद् न ज्वलन-पवनादिक्रियाऽनिव्याप्तिरिति येत १ न, शरीरत्वस्य चेष्टापटिनत्वात् । 'वेष्टाय सामान्यविशेषो, पत उन्नीयते प्रयत्नपूविक्रय कियेति चेतन क्रियामात्रेण तदुभयनात् । परमाणव्य के संयोग के लिये अपेक्षित है वह संयोग सीधे 2 से ही उत्पष हो जायगा । बीच में कर्म की कोई प्रावरपकता न रह जामगो । प्रातः उक्त परमारण कर्म को सीधे परष्ट से जग्य न मानकर प्रयत्न से अन्य मानना प्राचायक है।
( बेष्टात्व उपाधि को प्राशंका ) इस संदर्भ में यह शंका हो सकती है कि-'प्रकृप्त अनुमान घेण्टास्वरूप उपापि से पस्त है क्योंकि चेष्टात्मा कर्मस्वरूप साधम से विशिष्ट प्रयत्नजन्यत्व साध्य का व्यापक है स्योंकि प्रयतनम्य सभी कर्मों में चेष्टाव रहता है, और मापन का प्रयापक है क्योंकि कर्मस्वरूप सापन घटा विगत कर्ममें भी रहता है और पेष्टास्व उसमें नहीं रहता । तोटा साथमावच्छिन्नसाध्य का व्यापक और सापन का अश्यापक होने से उपाधि है। किन्तु वेष्टाव का निधन न होने के कारण चेष्टाय को उपाधि कहमा ठीक नहीं है। असे चेष्टा का अर्थ यदि प्रयत्नजन्यक्रिया किया जाएगा तो साध्य और उपाधि एफ ही हो जायगा । क्योंकि वृष्टि के बारम्भकाल में उत्पन्न होनेवाले प्रचणुक के उत्पावक परमाणद्वष संयोग में जाना परमाणु कर्म को प्रयत्मजन्य मानने पर फलत: प्रयत्नान्यप्रियाको साध्य होता है और वही बेष्टाय है । इसलिए चेष्टास्व अपने ही प्रति उपाधि नहीं हो सकता, साध्य साधन का सापक होता है अतः साध्य से अभिन्न होने के कारण लेष्टाव मो साथम का व्यापक ही होगा। जब कि उपाधि होने के लिये साधन का अध्यापक होना आवश्यक है। यदि यह कहरवास कि-हित की प्राप्ति और हित के परिहार को उत्पाषक किया घेष्टा है। अत: साध्य और बेटाव में अब हो जाने से चेष्टाप के उपाधि होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। तो यह ठीक नहीं हैं. गयोंकि विषभक्षण रूप किया और सपलंघन रूप क्रिमा भी चेष्टा है । किन्तु घेष्टा का उयत प्रकार से निर्वसन करने पर विभाग और पलान कप क्रियाएं चेष्टाम हो सकेगी, क्योंकि विषमग गावि क्रियाएँ मस्यू का जनक होने से हिल परिहार को अतक नहीं है। शरीर में समवाय HERE पहने वाली क्रियाकामाम बेटा - इस प्रकार भी वेष्टा का निर्वचन उचित नहीं हो सकता क्योंकि मत शरीर में किसी स्पर्धावान वेगवामय के संयोग से उत्पन्न होने वाली क्रिया भी चेष्टा के उक्त निर्वचनको परिधि में आ जाने से वह भी चेष्टा प्रम मे व्यवहस होने लगेगी। जोषित शरीर में सम. बाय सम्बन्ध से रहने वाली क्रिया चेष्टा -स रूप में भी चेष्टा का निकन नहीं हो सकता क्योंकि मंत्र का स्पश्वन मौर बातम्याधि से हस्तपादावि में होने वाला कम्पन भी वारीरसमवेत क्रियाला होने से चेष्टा हो जामगी।