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[शाबा समुचय ०३लोक-३
श्रुतं ब्रह्माण्डादिपतनाभावः पतनप्रतिबन्धकप्रयुक्तः धृतित्वात् उत्पतत्पत िपतनाभाचन्तु यमलोकपालयतिपादका आगमा अपि व्याख्याताः तेषां तदधिष्ठान देशानामीश्वरादेशेनैव पतनामावश्यात् । तथा च धुतिः " एतस्य चामरस्य प्रशासनं गार्गी यावापृथिवीविते निवतः" इति । प्रशासनं उण्डभूतः प्रयत्नः आवेश स्तरीरावयवत्वमेव सर्ववेशनिबन्धन एवं सा स्म्यव्यवहार इति "आत्मैवेदं सर्वम्, मेवेदं सर्वम्" इत्यादिकम् ।
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यदि यह कहा जाय कि स्पर्शवान् अस्य य के संयोग के बिना उत्पन्न होने बालो शरीर को क्रिया चेष्टा है तो यह भी ठोक नहीं है क्योंकि इस निर्वचन में शरीर पदा पण होने से पद्यपि जवलन और पवन आदि की क्रिया में नेष्टा का वारण हो जाता है क्योंकि वह क्रिया अस्पर्शवान् अन्यथ्य के संयोग से अनुत्पन्न होने पर भी शरीर समन नहीं होती क्योंकि ज्वलन और पवन किसी का शरीर नहीं है, तथापि चेष्टा के दस नियंचन में शरीर का शरीरश्न निवेश है और शरीर चेष्टाश्वयस्वरूप है। इसलिये बेटा के लक्षण में चेष्टा का प्रवेश हो जाने से आत्मवशेष लगेगा यदि यह कहा जाय कि-'ष्टा एक सामान्यविशेष=परम्परा काति है, जिससे वायर प्रयत्नपूर्वि का यह किया प्रयत्नजन्य हैं क्योंकि पेष्टारू है' यह अनुमान होता है' । -तो यह ठीक नहीं हैं क्योंकि क्रिया में प्रयत्नपूर्व का अनुमान क्रिया के सामान्य रूप किमत्व से भी हो सकता है। अत: क्रिया मे मनपूर्वकस्व की अनुमापकता के अच्छेजक रूप से भी चेष्टा को सिद्धि मानकर सामान्य विशेष रूप में चेष्टाव का निर्वाचन नहीं हो सकता। आशय यह है कि ०१के मत में सभी किया में ईश्वरप्रस्नपूर्वक होने से क्रियात्व मी प्रयत्नपूर्वकरण का स्थाप्य हो सकता है। इसलिये क्रियाश्य से ही प्रयत्नपूर्वकरण का अनुमान हो सकने के कारण प्रपत् के अनुमापका रूप में वेष्टाश्व को मान्यता नहीं प्रदान की जा सकती।
(ब्रह्माण्डभृति- पतनाभावपक्षक अनुमान )
तेरपि पति से भी ईश्वर का अनुमान होता है। पति का अर्थ है पलन का प्रभाव । उस से होनेवाले अनुमान का प्रयोग इस प्रकार होता है जैसे- ब्रह्माण्ड मादि गुरुवयों के पतन का प्रभाव पतन के किसी अधिक से प्रयुक्त है क्योंकि वह गुरु द्रव्यों के पतन का प्रभाव रूप है। गुरुव्यों का जो तनाव होता है वह पतन के किसी प्रतिबन्धक से प्रयुक्त होता है जीसे उड़ते हुए पक्षी के पतन का प्रमाण उस पक्षी के प्रयत्न प्रतिबन्धक से प्रयुक्त होता है एवं उडते हुए पक्षी से पकडे हुए तृणादि के पतन का प्रभाव तृण के साथ उस पक्षी के संयोगरूप प्रतिबन्धक से प्रयुक्त है। आशय यह है कि जिस द्रव्य में गुरुश्य होता है उस का पतन अर्थात् नीचे की ओर गमन होता है, यदि स्थानविशेष में उस को रोक रखनेवाला कोई पदार्थ न हो। इस रोकनेवाले पचार्थ को ही पतन का प्रतिबन्धक कहा जाता है जैसे वृक्ष की शाखा में लगे हुए फलों का गुरुत्व होने पर भी पतन नहीं होता क्योंकि शाखा के साथ फल का संयोग फलको रोक रखा है उस में पतनक्रिया उत्पन्न नहीं होने देता है। इसी प्रकार अब कोई पक्षी माकाश में उड़ता हुआ होता है तो उस उडते हुए पक्षी के शरीर में भी गुवत्व है। इसलिये उस गुरुश्य के कारण उस का पतन हो जाना चाहिये किन्तु उस का पतन