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स्या. टीका-हिनीविवेचना ]
इसलिये नहीं होता कि पक्षी का शरीर पक्षी की आत्मा में विद्यमान प्रयत्न से पारिस रहता है। अर्थात् पानी की प्रारमा का प्रयत्न स्थाश्रमसंयोगसम्बन्ध से अथवा प्रवाहवकता सम्बन्ध से पतन का प्रतिवन्धक होना है। इसीप्रकार नाफाश में उड़ते हुऐ पक्षी द्वारा पोंच में रखे हुए कारण प्रभवा फल प्रावि में भी गुरुत्व है और गुरुत्व के कारण उस का भी पतन हो जाना चाहिये किन्तु उस का पतन इसलिये नहीं होता कि उनके पतन का कोई न कोई प्रतिबन्धक है। इसी प्रकार ब्रह्माण्डावि प्रय भी गुरु है, अतः गुरुत्व के कारण उनका भी अपने स्थान से पतन हो जाना चाहिए किन्तु ऐसा महीं होता प्रपितु वे अपने निश्चित स्थान में अवस्थित रहते है । अतः उन के पतन का भी विरोमो कोई न कोई होना चाहिये । ब्रह्माण्डावि किसी जीय का शरीर नहीं है इसलिये उड़ते हुए पक्षों के शरीर के समान उस का धारण संजय नहीं है। किन्तु असे उड़ते हुए पनी द्वारा पक गये तृपकाष्ट माविका धारण प्रयत्नशील पक्षो के संयोग से होता है उसी प्रकार ब्रह्माण्ड प्रावि का मो धारण किसी प्रयत्नशील के संयोग से ही मानना होगा । वह प्रयत्नशील कोई जीव नहीं हो सकता क्योंकि जीव में प्रमल्न का उबम जीवके शरीर होने पर ही होता है और बह्माण्ड तो जीव के सशरोर होने के पूर्व भी रहता है। अतः एवं उसे किसी ऐसे ही पुरुष के संयोग से पारित मानना होगा जो पुरुष शरीर के बिना भी प्रयत्नवान हो सके। इस प्रकार के प्रयास से मारा गरौं हो पाता वह ईश्वर से अन्य कोई नहीं हो सकता।
(इन्द्रादि देवताओं से सिद्धसाधनता को प्रासंका) भागमो-गुरगणानिशास्त्रों में इन्न, अग्नि, यम आदि देवताओं को लोकपास कहा गया है। मर्थात उन्ह निन्न भिन्न लोक का थारक बताया गया है। श्विर को ब्रह्माण्डावि का धारक मानने पर यह समस्या करती है कि जिन लोगों का धारक इन्द्रापि बेक्तामों को बताया गया है उन का धारण मी ईश्वर से हो सो आयमा । फिर उन लोगों के धारणार्थ इन्द्रादि देवतानों की कल्पना अनावश्यक है, प्रथवा इस प्रकार की समस्या हो सकती है कि घागमों के अनुसार इन्द्राव ऐकसानों के द्वारा हो संपूर्ण लोक का धारण होमे से उनके सामूहिक प्रयत्न ले बाह्माण्ड का भी धारण हो सकमे के कारण ब्रह्माण्ड प्राधि के पारण के निमित्त श्विर की कल्पना प्रनावश्यक है ।किन्तु इन समस्याओं का समाधान प्रत्यंत सरल है। और वह यह है कि इन्मादि देवतापों से धारण किये गये लोकों का मो घारक ईश्वर ही है। न्यादि में उन लोकों के धारण करने को जो बात कही गई है वह मो जनदेवतामों में विर के माबेस पर निर्भर हैं। अभिप्राय यह है कि ईश्वर ही इन्त्रीवि पारीर में अन्विष्ट हो कर समस्त लोकों का धारक होता है। यदि ईश्वर का अस्तित्व न हो तो इन्द्रादि भी उन उन लोकों के धारण में उसी प्रकार समय नहीं होता।
देव मी ईश्वर को ही अलोक पृथ्वीलोक प्रादि का धारक बताता है। जैसे एतस्य च प्रक्षरस्य प्रशासमे गायों यात्रापथियो बिधत सिष्ठतः।' इस वेद बापय में गाना नामक महिला को सम्मोषित कर यह कहा गया है कि कभी भी अपने स्वरूप से व्युतम होनेवाले परमेश्वर के प्रशासन में होघ लोक और पपयो लोक अपने स्थल से पतित न होते हुए स्थित है। इस में प्रकासिन का मर्य धारण करनेवाला प्रयत्न है। इस प्रकार वेद के अनुसार समस्त लोकविर के प्रयत्न से हिपारित है यह सिश होता है । ममी को यह बात कही गई कि बन्द्रावि देवता में ईश्वर का प्रावेश होने से जन में लोकधारकत्व माना जाता है। उस में मावेश का मथं खातिरीर के द्वारा प्रस्नमान