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________________ [शा.था, समुरुपय क्त-३ श्लोक-३ आदिना नाशादपि, 'नशाण्डनाशः प्रयत्नजन्या, नाशचात • पाट्यमानपटनाशषद् इति । महना सहगत नहीं प्रतीत होता फिन्तु कथन का यह भाशय है कि घर के प्रयत्न से इन्द्रादि शरोर में लोकधारक उमापार का उदय होता है और उस व्यापार से लोक का धारण होता है । उस के प्रमुसार इन्धादि में ईश्वर का प्रावित होने का अर्थ है जवादि के पारीर को अपने प्रयत्न से सक्रिय बनाना। ईश्वर का श्रावेश केवल इन्वावि देवताओं में ही नहीं होता अपितु संपूर्ण पदार्थों में होता है। इसीलिये ईश्वर में संपूर्ण पाथों के तादारभ्य का अथवा संपूर्ण पदार्थों में रिवर के तादात्म्य का व्यवहार होता है। जैसा कि 'पारमय स-यह सब कुछ पात्मा ही है। महर्मवेवं सम्' यह संपूर्ण जगर ब्रह्मस्वरूप ही है इत्यादि शास्त्रवचनों से स्पष्ट है। अभिप्राय यह है कि जसे शरीर में प्रात्मप्रयत्न से क्रिया का उदय होने के कारण शरीर को प्रात्मा से माविष्ट मानकर शरीर और प्रात्मा में 'स्थलोहं करोमि इत्यादि सम्बन्ध से तावास्यरूप पबहार होता है। उसी प्रकार ईश्वर के प्रयत्न से संपूर्ण जगत् में प्रवस्थिप्ति रूप क्रिया का जश्य होने से संपूर्ण जगत में ईश्वर का पार्षिश होता है और अस से 'ब्रहमवेवं सई' इस प्रकार संपूर्ण जगत् में ईश्वर के तावास्म्य का व्यवहार होता है। (ब्रह्माण्डप्रलय से इश्वर की सिद्धि का अनुमान) कार्यायोजनधत्पा-इस पूर्व चित कारिका में भृति' शव के साथ 'प्रावि' शब्द पठिन है। अस पाविशय से नाराहप बर्थ की सूचना होती है । इसलिये इस कारिका से यह भी मान होता है किमा कहिप में भी ईश्वर की प्रतीति होती है। जैसे घर पर प्रादि काना तो सामान्य मनुष्यों के प्रमान से भी हो जाता है। किन्तु ब्रह्माण जिस में प्रनेक विशाल लोक प्राधित है उसका नास भी शास्त्रों में बरिणत है। वह नाश सामान्य मनुष्य के प्रयत्न से नहीं हो सकता, क्योंकि इतने बई बझापाको रचना की विधि जैसे सामान्य मनुरुय को हात नहीं होती उसी प्रकार उस के नाश की विधि भी सामान्य मनुष्य को ज्ञात नहीं हो सकती इसलिये बह्माण्ड के नाश के लिये प्रयत्नशील होने का स्वप्न मी वह नहीं देख सकता । अत: उस ब्रह्माण्ड का नाम जिस के प्रयत्न से हो सकता है वह घर से अतिरिक्त कोई नहीं हो सकता । ब्रह्माण्डनापा द्वारा होने वाले अनुमान का प्रयोग इस प्रकार होता है कि-ब्रह्मानाषा प्रयत्न से जन्य है पोंकि वह नाश है । जो मी नाका होता है वह प्रयत्न से साय होता है। जैसे पट के टुकार पारने पर होनेवाला पट का नाश ।' इस अनुमान में पनाऽसिद्धि को शंका नहीं की जा सकती क्योंकि ब्रह्माण्ड का नाश शास्त्रों में बरिणत है । अथवा 'बह्माखम नाशप्रतियोगी, अन्यभाषत्वात् ब्रह्माण्ड भी बट होता है क्योंकि यह जन्य भाव है, जो मो जम्म भाव होता है वह नष्ट होता है-असे घटपटादि' । इस पनुमान से भी ब्रह्माण्ड का माश सिद्ध है। अतः एव पक्षाऽसिद्धि नहीं हो सकती । शंका-'पट समूह के ऊपर जलता हुमा महमारा पड जाने पर पट समूह का माण हो जाता है. समुद्र में तूफाम या भूकंप माने पर सहस्रों भवन माविका माश हो जाता है। यह नाश किसी प्रयत्न से नहीं होता यह स्पष्ट है। इसलिये इस प्रकार के माशों में नाशत्व प्रयत्मजन्यस्य का स्यभिचारी हो जाता है। अतः मासत्व हेतु से ब्रह्माण्ड माश में प्रयत्न अन्यत्व का अनुमान अशषम है।"-स प्रकार की शंका नहीं की जा सकती क्योंकि ईश्वरवावी ऐसे माशों को मो ईश्वर प्रयत्न से ही सम्पन्न मानते है। अत: ऐसे नाश मी पक्षतुल्य होते हैं। अतः एष उनके द्वारा नाशक को प्रयस्तजन्यस्व का व्यभिचारी नहीं कहा जा सकता।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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