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[शा वा समुच्चय-स्त ३ ला० ३
आयोजनादपि । 'सगांयकालीनद्वशणुककर्म प्रयत्नजन्यम्, कर्मत्यात् , अस्मदादिकारीरफर्मवत्'- इत्पनुमानात् । परमाणोरेव तारशप्रयत्नवाचे बहताहानिः स्यात् । अष्टं तु तत्र इष्टहेत्वरपेक्ष न हेतुः, तथात्वे दृष्टहनुच्छेदापत्ते, कर्मण एवाऽनुन्प
(प्रायोजन-द्वयरणकजनकक्रिया हेतुफ अनुमान ) 'कार्यायोजनधरयावेः' इस पूर्व निर्दिष्ट कारिका में प्रायोजन को मो ईश्वर का अनुमापक बताया गया है। प्रायोजन द्वारा ईश्वर का जो पनुमान अभिमत है उसका प्रयोग इस रूप में होता है कि'सृष्टि के प्रारम्भ काल में उत्पन्न होने वाले धणक की उत्पत्ति जिस परमाणु-कर्म से होती है वह कम प्रयत्न अस्य है, क्योंकि वह एक कम है। जो भी कर्म होता है वह प्रयतजन्य होता है, जैसेप्रस्ववाबिके कारीर में होनेवाला फर्म । प्राशय यह है कि सष्टि के बारम्म में जब तणुक की उत्पत्ति होती है तब मिन परमाणुनों के संघोग से घणुक की उत्पत्ति होती है उन परमाणुनों में से किसी एक परमाणु में ईश्वर के प्रयत्न से कम होता है और उस कर्म में परमाणु का पूर्व ६श के साथ विभाग प्रोर पूर्व देश के साथ विनमान संयोग का नाश होकर दूसरे परमाणु के साथ उसका संयोग होता है। उसके बावे उस संयोग से चणक की उत्पत्ति और उस संमोग को उत्पन्न करने वाले परमाणुकर्म का मारा साथ ही होता है। यदि ईश्वर का अस्तित्व माना जायगा तो वो परमाणुमों में संपोष उत्पन्न करनेवाला कम न हो सकेगा। फलतः इवणुक की उत्पत्ति न हो सकने से सष्टि का निर्माण मसम्भव हो जायगा। प्रतः उक्त प्रनुमान के द्वारा सष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न होने वाले हमणूक की उत्पति के लिये अपेक्षित परमाणवयसपोग को संपन्न करने के लिये परमाण में जो कर्म अपेक्षित है उस कर्म के कारारूप में जो प्रयत्न सिम होता है उस प्रयत्न का माधय कोई जोध नहीं हो सकता क्योंकि सष्टि के प्रारम्भ में जीव प्रशरोर होता है और प्रारीर जीव में प्रयत्न की उत्पत्ति नहीं होती है। अतः उस प्रयत्न के प्राश्रय रूप में स्वर की सिद्धि प्रावश्यक है। यदि यह कहा आय कि-'वो परमाणों को संघक्त करनेवाला परमाण कम परमाण केशी प्रयत्न से उत्पन्न होता है तो यह टोक नहीं है क्योंकि परमाणु को प्रयत्नवान् मानने पर उसे चेतन ही मानना होगा क्योंकि प्रयत्न को उत्पत्ति वेतन में ही होती है। फलतः परमाणु को अक्ता समाप्त हो जायगी जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि सभी परमाणु चेतन होगे तो जमको अलग अलग पन्छाएं होगी। फलतः उनके विचारों प्राराच्यामों में सामञ्जस्य न होने के कारण उन्म के द्वारा मुष्पयस्थित सृष्टि का निर्माण न हो सकेगा।
श्रष्ट से परमारगक्रिया को उत्पत्ति को आशंका पायोजनके प्राचार पर प्रस्तुत प्रकृत अनुमान के सम्बन्ध में पवि यह कहा जाय कि-'सृष्टि के मारम्भ में जपणुक के प्रारम्भक परमाणहय के संयोग का जनक परमाणुकर्म प्रयत्न से नहीं उत्पन्न होला है किन्तु प्रस्ट से ही उत्पन्न होता है। इसलिये प्रकृत प्रनुमाम से ईश्वर को सिधि नहीं हो सकती-तो यह ढोक नहीं हैं, क्योंकि प्रष्ट रष्टाहेतु से निरपेक्ष होकर उस कर्म का कारण नहीं हो सकता। यषि ट हेतु को पपेक्षा किये बिना भी पहष्ट को कारण माना जायगा तो सर्वत्र प्रष्ट से ही सभी कार्यों की उत्पत्ति हो जाने से प्रष्टकारण का सर्वथा लोप हो जायगा । फलतः जिस फर्म को भष्ट से जन्म बताया जा रहा है उस कर्म को ही उत्पत्ति महीं हो सकेगी, मयोंकि वह कम जिस