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________________ स्या० क० टीका-हिन्दी विवेचन ] 'चित्यादिकं सकतृकं, कार्यत्वात्' इत्येवाऽनुमानम् प्रकृतविचानुकुल विवादविपयत्वेन सिस्यादीनामनुगमः कर्तृकत्वं च प्रतिनियतका निरूपितः संबन्धो व्यवहार सानिको घाटो नित्यवर्गव्यावृत इति नानुपपत्तिः इत्यपि केचित् । チ १७ सम्बन्ध से ज्ञान और इच्छा का साधन करने पर पूर्व लगं के योगिज्ञान और इच्छा को लेकर सिद्धसाधन हो जायगा। क्योंकि पूर्व सर्ग में सामान्य मनुष्यों को परमाणु और धणुक का प्रत्यक्षज्ञान और उन में उधणुक और अणुरूप कार्य की विकीर्षा न होने पर भी योगी को परमाणु और चक का ज्ञान और उन में इयणुक और व्यष्णुरूप कार्य की चिफोर्चा योगबल से श्रवमय हो सकती हैं। इस प्रकार पूर्व सर्ग के योगीजन और योगी की इच्छा को लेकर सिद्धसाधन की प्रसिद्धि होगी ।" feng विचार करने पर यह शंका उचित नहीं प्रतीत होती है क्योंकि ज्ञानेन्द्रकृति को मिति से साध्य मानने पर भी प्रप्रयोजकत्व दोष नहीं हो सकता, क्योंकि जानाकृति तीनों में मोलित रूप से कार्य के प्रति एक कारणता न होने पर भी उन तीनों में कार्य की जो पृथक् पृथक् तील कारणताएँ हैं यह ही प्रयोजक हो जायगी। क्योंकि कार्य यदि मीलित तीनों का व्यभिचारी होगा तो भी उक्त तीनों करताओं के सोप की प्रपत्ति होगी । कुछ विद्वान उक्त आपत्ति के भय से प्रत अनुमान का अन्य रूप में प्रयोग करते है। जैसे सृष्टि के आरंभ काल में स्थित प्रश्य विशेष्यता सम्बन्धसे ज्ञानवान है, क्योंकि उस में समवायसम्बन्ध से कार्य होता है।' इस प्रकार के धनुमान में पूर्वसर्ग योगीमान के द्वारा सिद्धसाधन की आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि इस अनुमान में सुष्टि का प्रारंभकाल पचतावच्छेदक है और तरकालावच्छेदेन ज्ञान की सिद्धि उद्देश्य है। सगं का ज्ञाम परमाणु भावि तथ्यों में सृष्टिके प्रारम्मकालावच्छेदेन नहीं रह सकता क्योंकि सष्टि के प्रारंभकाल में पूर्वसर्ग का ज्ञान विद्यमान नहीं होता । [क्षित्यादि पक्षक अनुमान ] कतिपय विद्वान 'कार्य सकतुके कार्यस्यात् इस प्रकार के अनुमान का प्रयोग न कर 'क्षिस्मादिकं के कार्यवा' इसी प्रकार के अनुमान का प्रयोग करते हैं । उनके अनुसार भित्यङ्कुरादि अनेक कार्यों का प्रनुगम, प्रकल विचार का प्रयोजक जो विवाद, उस विवाद के विषयस्वरूप से हो जाता है। अत: क्षिति प्रावि ताराविवादविषयत्वरूप एक अनुवल धर्म के द्वारा पक्ष बन जाते हैं । इसलिये मिलित्व भङ्कुरस्यादि धमके धमनुगत होने पर भी उन सभी को पक्ष होने में कोई बाधा नहीं होती। उन नोंके अनुसार सकतु कत्वरूप साध्य भी कर्तृ जन्यत्व' या कृतित्व रूप त होकर कर्तृनिरूपित सम्बन्धरूप होता है जो कि प्रमुक कार्य प्रमुककर्तृ मान है। इस व्यवहार से सिद्ध है, और तिथ्य पत्राओं में नहीं रहता क्योंकि मिस्यपदार्थो में कर्तृ मान' इस प्रकार का व्यवहार नहीं होता। कर्ता का यह सम्बन्ध पद प्राषि दृष्टान्त में सिद्ध है, क्योंकि 'घटक मान घटक मान हल प्रकार का व्यवहार सर्वमान्य है । इस प्रकार सित्यादिकं सकतृ के इस अनुमान से क्षिति अङ्कुरावि कार्यों में कर्ता का निमत सम्बन्ध सिद्ध होता है। और वह सम्प्रस्थ प्रस्मयादि को कर्ता मानकर नहीं उत्पन्न हो सकता। क्योंकि 'सियाविक अस्मादिक के यह व्यवहार नहीं होता । सः उक्तमनुमान द्वारा क्षिस्यादि में कर्तृ सम्बन्ध की उत्पत्ति ईश्वरद्वारा ही की जा सकती है। फलतः उक्त अनुसा द्वारा क्षित्यावि के कर्ता रूप में ईश्वर की सिद्धि निविवाद है ।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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