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________________ १६ ] [ शास्त्रवाभिमुनय स्त. ३ ० ३ सिद्धसाधनम् । न र बहिरिन्द्रिग्राह्यत्यमुपाधिः, अनुकूलतःण हेतोन्याध्यतानिर्णय सदनरकाशाद । न च त्रिनयस्य मिलिप्तस्य साध्यत्वेऽप्रयोजकत्वम् , मिलितत्वेनाऽहेतुत्यात , प्रत्येक साध्यत्वे ज्ञाने छापरवेन साधने सर्मान्तरीयमानादिना सिद्धसाधनमिति याच्यम् , मिलिनत्वेन साध्यत्वेऽपि कार्यकारणभावत्र यस्य प्रपोजकत्वात् । 'सगांधकालीन दृष्यं ज्ञानपत' कायवाद , पक्षतावच्छेदककालायच्छेदेन साध्यसिद्धः-इत्यप्याहुः ।। जान इच्छा मौर कृति विशेष्यता सम्बन्ध से साध्य है और कार्य समवाय सम्बन्ध से हेतु है। स्पष्ट है कि समवाय सम्बन्ध कोई भी कार्य द्रव्य में ही होता है। और जो कार्य जिस वश्य में होता है उस द्रष्य में उस कार्य के जपावान भूत दृश्य कावान और उसके उपादान मृत द्रव्य में उस कार्य की चिकीर्षा और उस कार्य के उपावासबूत द्रव्य को विषय करनेवाली उस कार्य को विधायिका कृति विशेष्यता सम्बन्ध से रहती है। इस अनुमान में अंशतः सिद्धसाधन की प्रसक्ति प्रतीत होती है क्योंकि पक्ष के मरतगत पानेवाले कपासादि द्रव्यों में घट के उत्पावक नान गच्छा और प्रयत्न विशेष्यता सम्बन्ध से सिद्ध है। किन्तु यह अंशत: सिद्ध साधन इस अनुमान को दूषित नहीं कर सकता, क्योंकि उस में पक्षतावनकी मुत्तमम्पत्वावकोवेन साध्य को सिसि उद्देश्य है। इसलिये पक्षसावमझेदक से प्राकारत होने वाले प्रख्या में परमाणुमार पyकास है बार उ च गुक और ध्यणुक के सत्यापनाच्छाति विशेष्यता सम्बन्ध से सिम नहीं है, क्योंकि परमाण मोर पण अमसावि के जान इच्छा प्रयत्न के विषय नहीं होते है। अतः उन में विशेष्यता सम्बन्ध से ज्ञानेन्छाकृति की सिद्धि ईश्वर के ज्ञानावि द्वारा ही हो सकती है। इस अनुमान में हिरिन्द्रियग्राहस्थ को उपाधिस्य संमाविस है, क्योंकि मानेच्याफतिरूप साध्य विशेष्यतासम्बन्ध से जिन कपासादियों में सिब है उन में बहिरिन्द्रियग्राह्यत्व है। इसलिये वह साध्य काध्यापक है। और कार्यरूप साधन समवाय सम्बन्ध से परमाणु श्रीर इचणुकावि में भी है किन्त उन में बहिरिन्द्रिययाह्यास्त्र नहीं है इसलिये वह साधन का अध्यापक मी है । किन्तु इस उपाधि से प्रस्तुत मनुमान का विरोष महीं हो सकता क्योंकि कार्य को यदि जानेग्लाकृति का श्यामचारो मामा जायगा सो कार्य के प्रति ज्ञानावि की सर्वसम्मत कारणताका लोप हो जायगा। इस अनुकल तक से कापारमक हेतु में मानेच्छाकृति रूप साध्य को ज्याप्ति का निर्णय उपस उपाधि के मारायला नहीं हो सकता क्योंकि अनुकुल तर्फ के अभाव में हो उपाधि-व्यभिचार से हेतु में साध्यश्यभिचार की अनुमति होने से हेतु में साध्य व्याप्ति के निर्णय का प्रतिरोष हो कर अनमितिका प्रवरोध होता है जो प्रस्तुत प्रनुमान में कार्यसामान्य के प्रति ज्ञानेन्वाकृति के सर्वसम्मत कारणता रूप अनुकूलतकं के नाते संभव नहीं है। (मीलित या पुथक् जानावि को साध्यता पर प्राक्षेप) इस अनुमान में यह शंका हो सकती है कि-"सामेन्याकृति' इन तीनों को मीसितरूप में साध्य माना जामगा तो अप्रयोजकाय दोष होगा अर्थात कार्यात्मक हेतु तीनों को मोलित रूप में सिद्ध न कर सकगायोंकि कार्य के प्रति जानेण्याकृति को मीलितरूपसे कारणता मामकर पृथक पृथक ही कारगता मानी जाती है। और यदि तामधागति को प्रसग मला साध्य मामा जाय तो द्रव्य में विशेष्यता
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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