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________________ ० क० टीका-हिन्दी विवेचन ] पराभिप्रायमाह - मूलम् - माध्यस्थ्यमेव तत्रेतुरगम्यगमनादिना । साध्य तत्परं येन तेन दोषो न कथन ।। ३२ ।। [ ३१ 1 . माध्यस्थ्यमेव = शरवतद्विष्टत्वमेव तद्धेतुः मुक्ति हेतुः । तत्परं प्रकृष्टम् क्लेशवासनयाऽभ्यमिति यावत् येन कारणेन, अगम्यगमनादिना, साध्यते गम्यागमनादिषु सुन्यतया प्रयुक्तेः तेन कारणेन कश्वन न दोषः । माध्यस्थ्योत्कर्षेण मुक्तेः, तत्साधनतया वागम्यगमनाद्युपयोगस्य समर्थनादिति भावः ॥ ३२ ॥ अत्रीतरमाह मम् एतदप्युक्तिमात्रं यत्रगम्यगमनादिषु । तावृतितो युक्त्या माध्यस्थ्यं नापपद्यते ॥३३॥। ग्रन्थकारने स्वनिर्मित उपास्या में प्रस्तुत कारिका के उतरार्ध का यह आशय बताया है कि 'हेतु का अभाव होने से मुक्त पुरुषों को मुक्तता को हामि होने के कारण मुक्ति का सद्भाव अनिश्य हो जाय अर्थात् सुबिल को जपता का व्याघात होगा' । प्रकृताकार ने इस आशय को उपपत्ति इस प्रकार की है कि न कम का क्षय हो मुक्ति है जो सत्र के मत में सम्मध नहीं है, क्योंकि हिला के विशेष अस्तिम अध्यवसाय से पूर्णकमों का क्षय हो जाने पर भी उस अन्तिम अध्यवसाय से होने वाले कर्म का अयन हो सकेगा, क्योंकि उसके अमलर हिंसा का कोई अन्य अध्यवसाय सम्भव नहीं रहता जिस से उस का नारा उत्पन्न हो सके. और उस कर्म को अणिक मानने का अन्य कोई आधार भी नहीं है, फलतः उक्त मल में कृत्स्न कमों का क्षय न हो सकने से मुक्ति की अनिता का प्रसङ्ग अर्थात् उस की उत्पन्नता का व्याघात निविवाब है ।। ३२ । ( श्रगम्या - गमनादि से मध्यस्थभाषप्रामिकारा मोक्ष-- पूर्वपक्ष ) काशिका में मुक्ति के लिये आदि को आवश्यक मामले में मन्त्र का गया है, इसे स्पष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैमाध्यस्य ही मुक्ति का कारण हैं, माध्यस्थ्य का क्षय है रागद्वेष से रहित होना। ईपगलेश को वासना मे क्षोभ न हो वैसा उस का प्रकर्ष होने पर हो मुक्ति का उदय होता है और वह प्रकर्ष प्राप्त होता है समान भाव से अर्थात् गम्य स्त्रियों के समान अगम्य स्त्रियों का गमन करने से आशम यह है कि किसी स्त्री को सभ्य और किसी को अगम्य मानने पर य के प्रति राग और अगम्य के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है अतः राज्य अगस्य का मेज न कर समान भाव से सभी स्त्रियों से सम्पर्क करना चाहिये, ऐसा करने से सब के प्रति समान होने से का अभाव होता है और यह रागदेष का अभाव जब प्रकृष्ट अवस्था में पहुंचता है सम मनुष्य को बिल प्राप्त होती है, मुक्ति को प्राप्ति में अगम्यगमन आदि के उपयोग का समयं इस प्रचार सुविहित माध्यस्थ्य को सिद्ध करने में करते है इसलिए उनमें कोई दोष नहीं हूं ॥३२
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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