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________________ २२] [ शास्त्रवातसमुचय २ श्लो० ३४ = एतदपि = अनन्तरोदितमथि उक्तिमात्रम् - युक्तिशून्यम्, यत् यस्मात्कारणात् प्रवृतितः =गभ्यगमनादितुल्यप्रवृतेः युक्त्या विचार्यमाणं अगम्यगमनादिषु तथा मध्यस्थ्यं नोपपद्यते ॥१३३॥ कुनस्तद्युपपद्यते इत्याह मलम् - अप्रवृथैव सर्वत्र प्रवासामध्भावनः । विशुक्रभावनाभ्यासात् तन्माध्यस्यं परं यतः ॥ ३४॥ सर्वत्र म्यागमनादी यथासामर्थ्य भावनः परिहारमामर्थ्यमनतिक्रम्य, अमच स्वतभिबन्धन विषय द्वेषात् सदनिच्या निर्ममत्वमासा विशुकानां मेव्यावर हितानी भावनानामनित्यन्त्राद्यनुप्रेक्षाणामभ्यासाद् मानसोत्साहात् परमनिर्ममन्यप्राप्तेः विषयद्वेषस्याऽपि बहुदा विनाश्यानुविनाशवद् विपयेच्छ विनाश्य तत्कालं विनाशात तलूप्रागुक्तम्, परम् उत्कृष्टं माध्यस्थ्यं भवति यतः अतोऽन्यथा नोपपद्यत इति भावः । तदिदमुक्तं वशिष्ठेनापि - 3 मानसी वासनाः पूर्वं त्यक्त्वा विषयवासनाः मैध्यादिवासना राम गृहाणामलवायनाः ॥ ( श्रगम्यागमनादि से माध्यस्थ की अनुपपत्ति- उत्तरपक्ष ) ३ कारिका से पूर्वारिका में उक्त मत का उत्तर दिया गया है | कारिका का अर्थ इस प्रकार हैंपूर्व कारिका में कहा गया है कि मुक्ति का हेतु है माध्यस्थ्य, और उस की सिद्धि के लिये आवश्यक है अगम्यगमन आदि कार्यों का अभ्यास । किन्तु यह कथन कोश कपनमात्र है. इस में कोई मिल नहीं है। क्योंकि पुक्तिपूर्वक विचार करने पर यह बात अश्यश्त स्कुट हो जाती है कि 'जिस मनोभाव से मनुष्य गम्य स्त्रियों का गमन करता हूँ उसी भाव से अगम्यस्त्रियों का भो गमन करने से सम्पूर्ण स्त्रियों के विषय में उस में माध्यस्य मा जाता है, किसी के प्रति उस के मन में राग या नहीं उत्पन्न होता' यह कल्पना निसार है ||३३|| (1 ( श्रप्रवृत्ति - विशुद्धभावना के अभ्यास से माध्यस्थ्य ) पूर्व कारिका द्वारा माध्यस्थ्य की सिद्धि के मन्त्रोक्त साधनों का लण्डन कर देने पर ऊठता है कि तो फिर माध्यस्थ्यसिद्धि का धन्य उपाध क्या है ? ३४ र्बी कारिका में उसी उपाय का हो प्रतिपादन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है अपने सामथ्य के अनुसार संसार के सभी विषयों में प्रवृति का परिहार करने से हो माध्यस्थ्य की सिद्धि और मिस भावना के अभ्यास से उस के उम्मर्ष की प्राप्ति होती है। इन से अतिरिक्त मध्यस्थ्य की सिद्धि और प्रकर्ष की प्राप्ति का कोई अन्य उपाय नहीं है । माय यह है कि ससारिक विषयों में प्रवृत होना मनुष्य का स्वभाव है, अतः उन में प्रत होते रहने से वह विषयों के सम्बन्ध में मध्यस्थ यानी रागद्वेष से मुक्त नहीं हो सकता, उस के लिये
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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