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________________ स्या का टीका और हिन्दी विरेचन ) [३३ तत्र वासनालमणमिदम्"दृढभावनया त्यक्तपिरविचारणम् । यदादानं पदार्थस्य वामना सा प्रकीर्तिनः ।।" सा च द्विविधा मलिना शुद्रा घ, तत्र शबा योगशास्त्रसंस्कारप्राबल्यात् सावधानसाधनस्नेनैकरूपापि मैयादिशब्देविभक्ता । मलिना तु त्रिविधा लोकवासना, शास्त्रयासना देडवासना पेति । 'सबै जना यथा न निन्दन्ति तथैवाचरिष्यामि' इत्पशपयार्थाभिनिवेशी कासना, गरपाधिमानतुपयोगितामा मलिनत्यम् । शास्त्रवासना विविधा पाइल्यसनम् । बानास्त्रव्यमानम् , अनुष्ठानव्यमनं ति, मलिनत्वं यास्था: क्लेशावहत्वपुमानुपपोगित्वदप हेतुत्वैः । देहवागना च त्रिविधा आत्मत्वभ्रान्तिः, गुणाधानभ्रान्तिः दोपापनयनश्रान्तिश्च । गुणाधानं विविध-लौकिक शास्त्रीयं च | आथं सम्यक् शमादिविषयमम्पादनम् , अन्त्य गङ्गास्नानादिमम्पादनम् , दोपापनयनमप्ये द्विविधम् । आयमापन व्याध्यापनयनम् , अन्त्य म्नानादिनाऽशौचाद्यपनयनम् । एतन्मालिन्यं चाऽप्रामाणिकत्याद् , अशक्यत्वात् । पुमर्यानुषयोगित्वान् पुनर्जन्महेतुत्वाच्च । . -- आवश्यक है कि मनुनय विषों में प्रचतम होने के लिये प्रपस्नशील रहें । विषयों से दूर रहने का प्रयत्न करते रहने से पौरे धीरे उसके प्रति मनुष्य के मन में रोष हो जायगा और देष हो जाने पर जम में उसका आकर्षण होना बन्य हो नायगा, आकषित होकर उन्हें पाने की नस को रक्षा सवा के लिये समाप्त हो जायगी। इससे विषयों में मनुष्य का समाप रह जायगा । फलतः संसार के सभी संयोग अनित्य है, ससार में जीव अशरण-हैं इस प्रकारको अनिस्पता-पारमाविकी निमंल माताअनुप्रेक्षा का हुक्ष्य ले सम्पास कर सकेगे । वह अभ्यास भी मैत्री पाहणादि चार भावों से समधित बना रखेगे। इस प्रकार मयावि मावों से पोषित अनित्यताविकी अनुप्रेक्षा के प्रयास से विषों से विमुण रहने के लिये मनुष्य के मन में उत्साह होगा, जिस से विषयों के प्रति अत्यन्त उत्कृष्टकोहि की विरक्तिनिर्ममता का उपय होगा जिससे राग का आरपन्सिक अभाव हो जामगा। विषयों में पिरति केस उपपावन से यह प्रक्षन सकता है किस विषयविरक्ति का मूल सोहै विषयव जो विषयों से दूर रहने के प्रयास्म से उदित होता है, फिर उसके रहते रागद्वेषसहित्यल्प माध्याय की सिद्ध हो सकती हैं ? ग्याल्याकारमे इस प्रश्न का उत्तर यह दिया कि जैसे प्राग बाह्य तृण आवियाको अलाकर स्वयं भी बुम जाती है उसी प्रकार विषय विषयेष्या को मष्टकर तत्कालही स्थ मष्ट हो जाता है, अतः विषयों में प्रवृत्तम होने का प्रसस्त करने से विषयों के प्रति रागाषराहिल्यास माप्यस्य की सिवि और ममतामुक्त विषयों में भनित्यता पाम भारि को विभावना के सम्याल से मायस्थय के प्रमर्ष की प्राप्ति होने में कोई बाबामही हो सकती। ग्यरस्पाकार में उक्त तथ्य की पुष्टि में पोगवासिष्ठ अन्य से अशिष्ठशक्षिका एक बार उधत किया है जिस में राम की मनोगत पातन विषय पासमाओं को स्मारकर मैत्रीभागि निर्णय पासमानों को अपनाने का उपदेवा विणा गया है।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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