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अथेष्टविरोधमाह
मूलम्-पर्मोद तथा मुक्तिरपीष्यते
[सं० २१
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स्वभावेन तद्भाव नित्य इष्टन बाध्य ॥३१॥
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मार्वादिभिः स्वधर्मोत्कर्षादेव स्वाभिमताऽगम्यगमनादिधर्मप्रकर्षादेव, भुक्तिपी ध्यते तथा भावेन सर्वागम्यगमनादीनां दुःशकतया सत्करूपचरम हेत्वसम्भवेन, तङ्काय: = मुक्तश्रुत्पादा, नित्यः-हेतुनिरपेक्षः स्यात्, नत्र्यश्लेषण अनिरंग:अभवनशीलः स्यादिति वा, स च इष्टेन उक्तरीत्या सहेतुकत्वाभ्युपगमेन बाध्यते ।
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'सद्भाव: = मुक्तिसद्भावः अनित्यः स्यात् हेत्वमायेन मुमान मुक्तताचते, तथा चेष्टबाधः" इति ग्रन्थकदाचयस्तु हिंसाभ्यवयायविशेषरूपहिंसात्कर्षेण प्राक्कर्मक्षयमम्भवेऽप्यये तदभावेन मणिकत्वद्वाराऽभावसम्भवादुषपाद्यः ॥ ३१ ॥
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गृहीत अर्थ का प्रतिपावक तथा प्रत्यक्षगृहीत होकर ही अर्थ का प्रत्यायक होने से प्रत्यक्ष का उपभोक है, और प्रत्यक्ष उस का उपजीव्य है, उपाध्य उपजीवक से सर्द बलवान होता है। अतः उक्त प्रत्यक्ष उपजोष्य का सजातीय होने के कारण उक्त आगम से तिलहन है ।
इसके अतिरिक्त जो 'बहुजनमान्य होता है वह अपनमान्य से बलवान होता है। इस नियम के अनुकूल तर्क भी है. वह यह कि यदि बहुजनमान्य को बलवान न माना जायगा तो अपने अभिमत की पुष्टि में बहुजन सम्मति बताने को लोकप्रवृत्ति का पास होगा । यतः ऐसी लोकप्रवृति है अतः सजनसम्मत को बलवान मानना निशिवाय है।
इस प्रकार मण्डलतन्त्र आगम में लोकष्ट का विशेष स्पष्ट हे ॥ ३=
[ हेतु के असम्भव से मुक्ति इष्ट का बाघ ]
३१ व कारिका द्वारा उक्त आगम में इष्टविरोध बताया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैमलावीम्यगमन एवं प्राणितिमा आदिको मानते हैं और उन धर्मों के उत्कर्ष को हो मुक्ति का हेतु मानते है. जो विरोध होने से उचित नहीं है। इष्टविशेष इसप्रकार है किहै मुनिका हेतुओं से सम्पन्न होना और वह मन्त्र के मत में अनुप है, क्यों कि उस मत में अगम्यनमन-प्राणिहिंसा आदि का उत्कर्ष हो मुक्ति का हेतु है जो किसी भी व्यक्ति द्वारा सम्पूर्ण गयों का मन एवं समस्त प्राणियों की हिंसा सम्भव न होने से दुर्घट है। फलतः हेतु के अभाव में मुक्ति का सद्भाव निश्य हो जायगा अर्थात् मु स को सबल: सुलभ हो जायगी, अथवा कारिका में तद्भाव विश्यः इस वाक्य में 'निश्य' के पूर्व अकार का अश्लेष कर काकाकार का इस कपन में माना जा सकता है कि हेतु के अभाव में मुक्ति अतिश्य अर्थात् हेतु के बिना उत्पन्न हो सकने से या अन्य हो जायगी। इस प्रकार मुक्ति के विषय में मन्त्र की उक्त मान्यता में इष्टविशेष स्पष्ट है।