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स्या क० टीका-हिन्दीनिधन ]
ईश्वरः कर्तेभ्यते । कीदृशः १ इत्याह-अचिन्त्या-इन्द्रियादिप्रणालिफा बिनाऽपि यथावत्सर्ववि. षयावनिछन्ना या चिन्छक्तिश्चेतना, तया युक्ता-तदाश्रयः, तथा अनादिसिद्धच कदापि बन्धाभाशत् । विविधो हि नैर्बन्ध उच्यते, प्राकृतिक वैकारिक दाक्षिण मेदात् । तत्र प्रकृतारात्मताशानाद ये प्रकृतिमुपास्त तेषां प्राकृत्तिको बन्धः, यान प्रतीदमुन्यते
"पूर्ण शतसहस्र तु तिष्ठन्त्यध्यक्तचिन्तकाः । इति । ये तु विकारानेव भूतेन्द्रियाऽइङ्कारबुद्धीः पुरुषद्धयोपासते, तेपा बैंकारिको पन्धः, यान प्रतीदमुच्यते
"दश मन्वन्तराणीह तिष्ठन्तीन्द्रियचिन्तकार । भौतिफास्तु शत पूर्ण, सहस्र स्वाभिमानिकाः ॥ १ ॥
घोद्धा शतसहस्राणि सिष्ठन्ति धिंगतज्वराः ।" इति । इष्टापूर्ते दाक्षिणो पन्धः, पुरुषतस्त्रानमिझो हीष्टाप्तकारी कामोपहतमना अभ्यत इति । इयं च विविवापि गन्धकोटिरीश्वरस्य मुक्ति प्राध्यापि भवे पुनरेग्पना प्रकृतिलीनत्वज्ञानान
[ पातलल के मतानुसार ईश्वर का स्वरूप ] पातञ्जल बान में मिलता रमने वाले विद्वानों में यह माना है कि जगतउत्पादकसामनी में ईश्वर भी प्रविष्ट है क्योंकि अगत के अन्य प्रचेतन कारणों का प्रेरक होने से वहो जगत् का कर्ता है। उस की चेतना शाक्ति अचिन्त्य है. क्योंकि स्त्रियाविज्ञान साधनों के बिना भी संपूर्ण विषयों से उस का संबन्ध है।मति ईश्वर सामननिरपेक्ष सर्वविषयक शाश्वततान का पाषय है पौर मनाविसिस मित्यमुक्त है क्योंकि उस में कभी भी बम्ब संमत्रित नहीं है । करने का प्रावास है कि बन्ध के तीन भेद होते हैं-(१)प्राकृतिक (२) वकारिक (३) दाक्षिण्य ।
(तीन प्रकार का बन्ध ) जो लोग प्रकृति को ही प्रात्मा समभाकर उसी की प्रारमरूप में उपासना करते है उन्हें प्राकृतिफ बन्ध होता है पौर से प्रकृति में प्रात्मचिन्तन करने के फलस्वरूप पूरे शतसहस्र (१००,०००) धर्म तक प्रकृति में मुफ्त कल्प होकर मवस्थित रहते हैं।
और जो प्रकृति के कार्यभूत-इन्द्रिय-महकार और बुद्धि तत्त्व को प्रात्मा समझकर उन्हीं की प्रात्मभाव से उपासना करते हैं उन्हें कारिक बन्ध होता है। उन में इन्द्रिय में पास्मभाष का चिन्तन करमे पाले दशमम्वन्तरफाल सक नि:स रहते हैं। और मूतों का प्रात्मभाव से चिन्तन करने वाले भौतिक को जाते जो १००सौगातक निर्दलहोकर रखते है । मौर परकार को प्रारमत रूप से चिन्तन करने वाले प्रासिमानिकको जातेसहसवर्ष तक निखरा और जोखिम प्रात्ममाव से देखसे हैं और उसी के प्रात्मरूप में उपासक होते हैं वे सहस्र वर्ष सक दुःखमुक्त रहते है। इस प्रकार प्रनारमा में प्रात्मयमियों को मुक्तायस्मा पनित्य होती है।
१ बौद्धा-युशिशदानडेविकोऽम् ॥