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[ शा. पा. समुच्चय स्त०-३ श्लोक-१
योगिनामिव नोचरा न वा पूर्वा संसारिमुस्तात्मनामिय, इति निर्माधमनादिसिद्धत्तम् । तथा बाह पतञ्जलि:-"क्लेश-कर्मविपाका-ऽऽशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरीयोगत्र २-४}" इति । क्लेशा: अविद्याऽस्मितारागद्वेपाऽभिनिवेशाः । कर्माणि शुभाऽशुभानि । तद्विपाको जात्यायुर्योगाः। आशयाः नानाविधास्तदनुगुणाः संस्काराः । तेरपरामृष्टोऽसंस्पृष्टः सर्वतया भेदाग्रहनिमितफाऽविद्याऽभावान् । तस्या एव च भवाहेतुसवेक्लेशमूलत्यात् । तथा च सूत्रम्-"अविद्या क्षेत्रमुसरेषां प्रसुप्त-तनु-विच्छियो-दाराणाम्" (योगसूत्र २.४) इति । अनभिव्यक्तरूपेणावस्पानं सुप्तावस्था, अभिव्यक्तम्यापि सहकार्यभावान् कार्याजननं सन्यवस्था, अभिव्यक्तम्य जनितकार्यस्यापि केनचित् क्लवता सजातीयन विजातीयन वा लम्धवृत्तिकेनाभिभवान् भविष्यद्त्तिकत्वेनावस्थान विच्छिमावस्था । अभिव्यक्तम्य प्राप्तसहकारिसंघचरप्रतिबन्धेन लब्धवृत्तिकतया स्वकार्यकरत्यमुदारावस्था : सामानवस्थातिगमगात नागाधि नीगरो. अन्त्यं तु शुद्धसवमयेन भगयध्यानेनेति । 'अविद्याऽभावात तमाशजन्यं कथं तवज्ञानं तस्य ?' अति चेत् । अत एष नित्यं सत्र , निल्पज्ञानरचादेव चायं कपिलप्रमृतिमहीणामपि गुरु: ॥४॥
इन्ट और पूरी को दक्षिण कन्ध कहा जाता है । इष्ट का अर्थ है घेव में परिणत विविध मन और पूर्त का मर्म है पुराणों में वसित परोपकार के कार्य जैसे वाटिका बावडी कप धर्मशाला आदि का निर्माण । जो बात्मा के वास्तव स्वरूप को नहीं जानता यह यज्ञ और परोपकारक कार्यों की अभिलाषा से उन कार्यों में मनोयोगपूर्व व्यापत होता है और बन्धनों से प्राबद्ध होता है।
ये तीनों बरपों की दो कोटि होती है-पूर्व कोटि और उत्तर कोरि। वे योगी जो प्रकृति मावि में प्रामचिन्तन कर प्रकृति में सोन हो कर मुक्ति प्राप्त करते हैं उनको मुक्ति की अवधि समाप्ति होने पर संसार में पुनः पाना पञ्चता है प्रतः वह उक्त बन्धों को उत्तर कोटि को प्राप्त करते है और जो संसारी जीव मात्मा का वास्तव स्वरूप का साक्षात्कार करके मुक्त होते है उन्हें उन बन्धों की पूर्व कोटि होती है, उसर कोटि नहीं होती, क्योंकि मुक्ति के बाद उन्हें किसी प्रकार का बन्ध नहीं होता। बिर में बन्ध को ये दोनों हि कोटिया नहीं होती इसलिए यह निर्वाध रूप से मिस्य मुक्त होता है। अंसा कि पतजलि ने अपने योगवान में कहा है कि जो पुरुथ क्लेश-कर्म-विपाक और माशयों से कभी भी संघुमत नहीं होता वह पुरुषविशेष ही हीचर है।'
[ क्लेश-कर्म और विपाक का स्वरूप ] मलेगा का अर्थ है प्रविचा-अस्मिता-राग-द्वेष मौर अभिनिवेश । कम परमार्थ है पुण्य और पाप । विपाक का प्रय है जन्म-मायु और भोग रूप कर्मफल । और प्राशय का मर्थ है जम्म प्राय और भोग के प्रयोजक अनेक प्रकार के संस्कारों का निधि । ईश्वर में इन बस्सुमो का सम्पर्क नहीं होता क्योंकि बाह सर्वज होता है इसलिए उस में प्रारमा प्रौर मनास्य के भेव का मजाम नहीं होता । इसीलिए पनामा में पास्मा के तावात्म्य की वृद्धिरूप प्रविधा भी उसमें नहीं रहती। और जब उस में भविद्या हो नहीं होती तो उसमें अन्य क्लेशों के सम्पर्फ की संभावना कैसे हो सकती है ? क्योंकि विद्या ही जगत् के हेतुभूत सम्पूर्ण क्लेशों का मूल है । जहा मुल ही नहीं है यहां उसके कार्य कैसे हो सकते हैं?