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________________ म्याटी और हिन्दी विवेचना तदिदमाहमृलम्-ज्ञानमप्रतिघं यस्य पैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैत्र धर्मश्च सहसिर चतुष्टयम् ॥२॥ यस्य जगत्रनेज्ञानम् , अप्रतिषम् नित्यत्वेन सर्वविषयवान क्यचिदप्यप्रतिहतम् । सग्य चमापथ्यं च रागाभाबादप्रनिघम् । घः ससुभयो एकोऽवधारणे, ऐश्वर्य पारसच्या. ऽभावाइप्रसिघम् । तथाविधम्-अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्ति, प्राकाम्यम् वशित्वम् , यह बात योगसूत्र में इस प्रकार कही गई है कि "प्रमुप्त, तनु, विच्छिन्न मोर उदार ये सभी प्रकार के उत्सरमाधि क्लेशों की जन्मभूमि अविद्या है। सुप्तावस्था का अर्थ है अप्रकररूप में क्लेश की अवस्थिति, तनु अवस्था का अर्थ है प्रकट होने पर मो सहकारी कारण का संनिधान न होने से कार्य को उत्पन्न करने को असमर्थता । और विन्छिन्नावस्या का अर्थ है अभिव्यक्त होकर मोर प्रपने कार्य को उत्पन्न करके मी किसी बलकालव्यासकः सजाय या जातीय वाय अभिसूत -वृत्तिहीन होकर भविष्य में सत्तिक होने के लिए अवस्थित रहना । और उदार अवस्था का अर्थ हैअभिव्यक्त होकर एवं सहकारियों का संविधान प्रस्तपर एवं कोई प्रतिवन्धक न होने से अपने कार्य पो उत्पन्न करने का प्रथरार प्राप्त कर अपने कार्य का सम्पावन करना। इन प्रवस्थानों में पहली वो श्रावस्यानों की निवृति निर्बोज समाधि से होता है जिसे शतिप्रताप कहा जाता है। पौर अन्तिम यो अवस्थाओं को निवृत्ति भगवान के शुद्धसत्त्वमय ध्यान से होती है।" ईश्वर को तत्त्वज्ञ मानने पर प्रश्न होता है कि जब ईश्वर में प्रविद्या ही नहीं होती तो उस में तस्वशान कसे होता है ? पोंकि तस्वशान मविद्या के नाश से होता है किन्तु वर में विद्या न होने से उस का नारा भी उसमें नहीं हो सकता और इसके फलस्वरूप तस्वज्ञान को कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस प्रश्न का उसर यह है कि ईश्वर में विद्या और विद्या कानाश न होने के कारण ही उसका तत्त्वज्ञान निस्य होता है और नित्यज्ञान का माधय होने से ही यह कपिलादि महषियों का भी गुरु होता है। यूसरी कारिका में पूर्व कारिका के कथन को ही पुष्ट किया गया है। कारिका का अब इस प्रकार है [ ईश्वर का सहजसिज चतुष्टय ] ईश्वर जगत का स्वामी है । उसका मान निष्प एवं सर्वविषयक होने से किसी काल मोर किसी विषय में प्रतिहत नहीं है। उसका बराग्य-माध्यस्थ्य मी उस में रागम होने से कहीं भी प्रतिहत नहीं है । अर्थात् उसमें किसी भी सेतन प्रथमा अचेतन वस्तु के प्रति राग और न होने से वह सबके प्रति तटस्प है और उसमें किसी प्रकार की परसन्नता होने से उस का ऐश्वर्य भी अप्रतिहत है। उसके ऐश्वर्य का माठ प्रकार हैं-मणिमा, लघिमा, महिमा, 'प्राप्ति, 'प्रामाम्य 'पशिस्व ईशित्व 'यत्र कामावसायिस्व ।
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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