________________
[ शा. बा. समुरुपय स्त. २-खो०१
सामयामीश्वरोऽपि निवित इति वातान्तरमाइमुसम्-ईश्वरः प्रेरकत्येन कर्ता कैश्चिविष्यते ।
अचिन्त्यचिच्छक्तियुक्तोऽनापिसिद्धश्च सूरिभिः ॥१॥ इह सामग्र्याम् । फेरिषत् परिभिः पानालाचार्य, प्रेरकत्वेन परप्रवृत्तिजनकत्वेन सांसारिक प्रासंमन को पहण कर लेगा और फिर ईश्वर के दर्शन को श्राशा उसके लिए एक दियास्वप्नमात्र रह जायगी । दूसरी बात यह है कि घर के दर्शनार्थ साधना करने वाले व्यक्ति का जीवन शास्त्र पर प्राधारित होना चाहिये और उसके समस्त व्यापार शास्त्र के विधि-निषेधों से नियन्धित होना चाहिए। यदि सापक के पास शास्त्र का मालोक म रहेगा तो कभी भी वह मोह के अंधकार में गिर सकता है।
तीसरी बात यह है कि साधक को अपने साधनामार्ग पर चलने के लिए बड़ा धैर्यवान होना चाहिए। लक्ष्य को प्राप्ति में विलम्ब होने पर मी उसे किथित विचलित न होना चाहिए । हो सकता है कि उसे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जीवन भर अथवा कई जन्मों तक अपनी प्राध्यामिक यात्रा मालू रखनो पो।।
पौत्री शत पोर महत्व को है जो यह है कि पोस राग समज भगवान का किश्चित्मात्र स्मरण होने से ही साधक का हवयोधकार दूर हो जाता है क्योंकि उस से साधक की प्राशा बलवसर होती है। और विश्यात होता है कि अपने मार्ग पर चलने पर भगवान का प्रशिक वर्मान गोत्र मी हो सकता है और उस दर्शन से ही उसके हुवय का प्रशाम तमः दूर हो सकता है जो कि उस की पग्रिम यात्रा में उसे मयप्रद हो सकता है और निराशा के प्रावर्त में उझान्त भी कर सकता है।
पांचवीं बात-जेन मासन के महान सिद्धांत का प्रथयोतन करती है। वह यह कि जन शासन में न्याय वर्शन के समान ईश्वर को जगत का कर्ता-मर्ता मोर इर्ता नहीं माना जाता। क्योंकि अगस उत्पावन पालन और बिनाका का फर्तृत्व यदि ईश्वर में माना जायेगा तो उसमें राम षादि का सम्बन्ध पवाय मामना होगा क्योंकि जिस में राग षादि का संबंध नहीं होता वह जीव हिंसक मारंभ समारंभादि काल भी व्यापार नहीं कर पाता और यदि रागष प्रावि होगा तो उसका ऐश्वय निश्चितरूप से कलंकित हो जायगा क्योंकि उस स्थिति में उस में सांसारिक की अपेक्षा कोई वैशिष्टम न होगा।
घट्ठी बास जो कही गई है उस से ईश्वर के अभिवादन का मुख्य लाभ सूचित होता है। और वह है निराबरण अनंत ज्ञान युक्त विशुन अक्षय मानव की मिधि प्राप्ति । इस कथन से यह संकेत किया गया प्रतीत होता है कि ईश्वर-अभिवावन से मनुष्य को यद्यपि उसके लौकिक ममीष्ट प्राप्त होते हैं किन्तु मनुष्य को उसे भगवान के अभिवादन का लक्ष्य नहीं रखना चाहिए। अन्यथा उस के मुख्य लक्ष्य अनंत ज्ञान व महान वानंद की प्राप्ति से मनुष्य वंचित रह जायगा । प्रतः लौकिक ममोकष्ट को उसे प्रानुषंगिक रूप में ही प्रहरा करना चाहिए।
प्राय मूल कारिका में अन्य शास्त्रों के इस मत का जल्लेख किया गया है कि जगत की उत्पत्ति जिस कारणसामग्री से होती है उस में ईश्वर का मोसमावेश है। कारिका का मषं इस प्रकार है