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________________ 9 मई म * शास्त्रवार्तासमुच्चय * तृतीयः स्तबकः (मङ्गल) टी)-सत्र शास्त्रपरिश्रमः शमवतामाकालप्रेकोऽपि यन् साक्षात्कारकतेधृते इदि तमोलीयेस यस्मिन्मनाम् ।। यस्यश्वर्यमपङ्किलं च जगत्याद-स्थिनि-चंसनः । में देवं निरपग्रहग्रहमहानन्दाय बन्दामह ॥ १ ॥ [ निष्कलंक ईश्वर को प्रणाम ] जिस देव का प्रत्यक्ष दर्शन करने के उद्देश से शमसंपन्न साधुपुरुषों का शास्त्रसंमत संपूर्ण परिधम एकमात्र भगवन्मुख होकर आजीवन चलता रहता है, अर्थात् बिस के वर्मान के लिए शमसंपन्न साधुओं एकमात्र ईश्वरपरामण होकर शास्त्र की रीत से सीवन-पर्प्रन्स या प्रत्येक जीवन-पर्यन्त कठोर परिश्रम करते रहते हैं और हदय में जिसका किलिमात्र स्फुरण हो जाने पर हुण्य का संपूर्ण प्रमान-अंथकार विलीन हो जाता है और जिसका ऐश्वर्म जगत के उत्पादन-पालन और संहार के व्यापार से फतुषित नहीं होता -उस देव का हम निष्प्रतिबन्ध (मिराबरण) मान युक्त महान पानम्ब के लिए मभिसाधन इस मंगल श्लोक से जम दर्शन को कई महत्वपूर्ण दृष्टीयौ स्पष्ट होतो हैं, जैसे-धीतराम भगवान का साक्षात्कार करने के लिए साधक को सर्व प्रथम शमसंपन्न होना चाहिये । शम का अर्थ है कोषलोमाविकषामों का उपशम जिसमें समाविष्ट है संसार के विषयों में प्रासक्ति का परित्याग । मनुष्य जब तक सांसारिक मोगों से उदासीन न होगा-या सांसारिक विषयों में जम तक उसके मन का माकर्षण शिथिल म होगा तब तक विषय जनित कषाय मंद न होमे से ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिए वह योग्य नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि शमसंपन्न होने पर भी उमे भगवन्मुक होना मावश्यक है क्योंकि शम सोने पर भी यदि मनुष्य भगवरमबहोगा तो उसका शम स्थायीतमो सकेगा। मंसार का का पाकविषय एक चिम उसको वाम विचलित कर देगा, क्योंकि मनुष्य का मन सवा कोई न कोई प्रालबम चाहता है। प्रतः उसे भगवान का मालंबन न दिया आयगा तो विवश होकर वह किसी
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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