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[ शा. बा, ममुनय 2- लोक-एक
गाह । वा पात
बाप! -'दिका तमप्रतिद्वनी यदपंणकल्पे पुम्य ध्यारोहति, तदेव भोक्तृत्वमस्य, न तु विकागेपनिः' इति । 'बुद्धिमतप्रतिविम्ब मन्येव बुद्धिगतभोगोपसंक्रमः, पिम्वात्मनि तु न किचित्' इत्यपरे।
स्त्रोक्तेऽर्थेऽभियुक्तगमतिमाह-योक्तं पूर्वसूरिभिः बिन्ध्यवास्यादिभिः ॥२७॥ किमुक्तम् ? इत्याइ
मूलम्-पुरुषोऽयिकृताम्मैच स्वनिर्भासमवेतनम् ।
____ मनः करोति सांनिध्यादुपाधिः स्फटिक यथा ।।२८|| पुरुषः आत्मा, अधिकामात्मैव अप्रच्युनस्वभाव एव, अचेतन मनः, मानिध्यात सामीप्याव वेतोः, स्वनिर्भासं स्वोपरक्तम् कमेनि । निदर्शनमाह-यथोपाधिः पद्मगगादिः स्फटिक स्वधर्मसंक्रमेण स्वोपरक्तं करोति । न चेतायता स विकरोनि, किन्तु स्फटिक एवं विक्रीयते, तथाऽऽत्मापि वृध्युपरागं बनयन् न रिकरोनि, किन्तु बुद्धिरका बिक्रीयत इनि भाषः ॥२८॥
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को प्रहण करेगा तो विकारी हो जायगा-' पयोंकि पुरुष में बुद्धि का जो प्रतिविम्बात्मक उपराग होता है बहतारिखक नहीं होता। अत एव यह पुरुष को विकारयुक्त नहीं कर सकता । वादमहापंप मामक प्रत्य में यह बात इस प्रकार स्फुट की गई है कि जैसे एक वर्षण में पडा हुमा किसो वस्तु का प्रतिविम्ब उस दूसरे वर्पण में भी संक्रान्त होता है जिसमें वस्तु के प्रतिमिम्ब से पुक्त पहला वर्पण प्रतिमिम्बित होता है। उसी प्रकार वस्तु का प्रतिबिम्म अनि में पता है और जहा प्रतिबिम्ब से पुक्त नि का प्रतिविम्ब पुरुष में पड़ता है । अतः बुद्धिगत वस्तुप्रतिशिम्य पुरुष में भासित होता है। बुद्धि के प्रतिविम्ब द्वारा पुरुष में वृद्धिगत वस्तुप्रतिबिम्ब का मासित होना ही पुरष का भोमतृत्व है। इस प्रकार का मोहत्म होने पर भी पुरुष में कोई विकार नहीं होता। अन्य विवादों का इस सम्बध में यह कहना है कि बुद्धि में पुरुष-मात्मा का प्रतिबिम्ब होने पर प्रात्मा के वो रूप हो जाते हैं । एक प्रतिविम्ब मारमा और दूसरा विधारमा। इन में वृद्धिगत भोग का सम्बन्ध प्रतिविम्बात्मा में ही होता है. बिम्बास्मा में नहीं होता । प्रतः प्रतिविम्यरमा के विकृत होने पर भी विम्यात्मा को निर्विकारता यथापूर्व बनी रहती है ॥२७॥
(मात्मसंनिधान से अन्तःकरण में औपाधिक चैतन्य) २८ वौं कारिका में पूर्व संकेतित सांस्यवेत्ताओं के कथन को स्पष्ट किया गया है। कारिका मथं इसप्रकार है
प्रारमा अपने समिधाम से प्रवेतन मन को उपरक्त करता है अर्थात उसमें अपने बसम्म को प्रतीतिराहा और ऐसा करने पर भी वह अपने स्वरूप से विकली जाता है। यह बात स्फटिक के दृष्टान्त से बताई गई है। मामय यह है कि जैसे पारागमरिण प्रा जपाधि समीपस्थ स्फटिक मरिण को मापने पणं के संक्रमण द्वारा उपरफ्त करती है किन्तु ऐसा करने पर भी यह