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________________ भ्याक० टीका-हिन्दीविशेषता ] [ २०५ देहेन भगो देहगन, 'धान्येन वनमू' वार्थः, नैष, अस्य=आत्मनः भावतः - नश्यतः इतिवदभेदे तृतीया, देहभोगेन देहद्वारे ति इष्यते भोगः, किन्तु प्रविधियोदयात् । येवमपि सुख-दुःखाद्यन्तःकरण धर्मानुषिद्धस्य महत एवं स्वतोऽचेतनम्य चेतनोपरागेण 'चेतनोऽई सुखी' न्याद्यभिमान रूपश् चैतन्यशिलाधिको मोगः, न तु पुरुषस्य, तथापि भोक्तृबुद्धिनिधानात् तत्र भोक्तृत्वव्यवहारः । तदाह पतञ्जलिः शुद्धोऽपि पुरुषः प्रत्ययं चौद्धमनुपश्यति तमनुपश्य तदात्मादि तदात्मक व प्रतिमासते' इति । केबिसु बुद्धी पुरुषोंपरागयत पृचेऽपि घुद्ध परागं वर्णयन्ति न विकतत्वापत्तिः, अनाचि कोपरागेण तदयो " गोग की होती है। कारिका का अर्थ इस प्रकार - कारिता के अन्तर्गत उत्पत्ति में देश के उसर विद्यमान तृतीयाविभक्ति का अर्थ यभेव हो सकता है जैसे 'वान्येन चतम् इस वाक्य में धान्य शब्जोवर तृतीया का प्रमेव अर्थ होता है। अतः बेहोस शब्द का अर्थ होता है बेहास्मको भोग: । ऐसा अर्थ करने पर योग शब्द को भुज् धातु से कररण अर्थ में पत्र अत्मय द्वारा निष्पन्न मानना होगा और ऐसा होने पर देहयोग शब्द का अर्थ होगा भोग का देहात्मक साघन उक्त पतिको माया घञ् प्रत्यय से निरस मारने पर देशदोत्तर तृतीया का 'वार' धर्य करना होगा। और तब देहभोग शब्द का अर्थ होगा-देह द्वारा होनेयाला भोग देहमोग के उक्त दोनों प्रथों में कोई भी प्रार्थ लेने पर यही तथ्य उपलब्धता है कि सोय के वैज्ञानि मान से देवारा होनेवाले भोग से प्रात्मा में वास्तविक भोग नहीं उपवन होता । क्योंकि माना पूर्णरूप से कुरभ है । यसः विन्ध्यवासी आदि पूर्वता विद्वानों ने यह कहा है फि ite के यात बुद्धिस्व में पुरुष का प्रतिदिन होने से बुद्धिस भोग कर आत्मा में आमा मात्र होता है। यह ज्ञातव्य है कि प्रतिविम्ब द्वारा मी आस्मा में भोग को उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि 'चलनोऽहं सुखी' इस अभिमान को हो चैतन्यरूप प्रात्मा में सुख का सात्विक भोग कहा जा सकता है । किन्तु यह अभियान की आदि प्रत्तःकरणधमों से मनुष्य एवं स्वत: चेतन महतक में हो गया होता है। सतः इस से ग्रात्मा भोग का प्राश्रय सिद्ध नहीं हो सकता। यथार्थ में भोग कामाश्रय तो बुद्धि ही होती है। अतः उस के सविधान से पुरुष में जोबश्व का व्यवहार मात्र होता है। मेला कि पालने के माध्य में कहा है-पुरुष विक्रान्त ज्ञान का मनुष्टाना होता है। और हष्टा होने केही जैसा प्रतीत होता है 'एल के इस यवन का सार पुरुष में नोहार के प्रदर्शन में हो है । ( पुरुष में बुद्धि के प्रतिविम्व से विकृति का प्रसंग ) कुछ में गुरुष के उपराग के सम्मान पुरुष में भी वृद्धि का उपराग खलाते हैं। उन का प्राय यह है कि जैसे त्रि में पुरुष का प्रतिषिडता है उसीप्रकार पुरुष में भी वृद्धि कर प्रतिपिता है। ऐसा माननेपर यह रात नहीं की जा सकती कि पुरुष यदि वृद्धि के प्रतिविध होता है। यह वृद्धि नो पर भी श्व न होने पर भी भोग
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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