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________________ ] [ शा. बा. समुच्चय २०-१-१ वर्षान्तरमाह मूलम् प्रधानमन्थे तु मन्यन्ते सर्वमेव हि । महदादिक्रमेणेह कार्यजातं विपश्चितः ॥ १८ ॥ अन्ये तु विपश्चितः सांख्याः इह सामग्रीविचारे, सर्वमेव हि कार्यजातं महदादिकमेण प्रधान मन्यन्ते । + तथाहि तेषां पञ्चविंशतिस्तम्वानि, तत्राऽकारण अकार्य च कूटस्थनित्य चैतन्यरूप आत्मा । प्रकृतिश्चैतना, महदाद्युत्पादकाऽशेषशक्तिप्रचिता, आदिकारणम्, परिणाविनी । तदभावे हि परिमितं व्यक्तं न स्यात् सथोत्पादक हेत्वभावात् । न च स्पाव मेदानामन्ययः, तन्मयकारणप्रभवत्वं विना तज्जातिमत्कार्यानुपलब्धेः । न च पुद्धिरेव कार्यमनुविधायिनी, साधारणत्वात् अनित्यत्वाच्च । न च महदादिहेतुशक्तिप्रवृतिः स्याद । न हि पदादिजननी शक्तिस्तन्तुवायादिकमाचारं विना प्रवर्तते । तथा कारण कार्य विभागोऽपि न स्पा, महदादौ कार्यलय्यवहारस्य संबन्धि सापेक्षत्वात् । न च स्याद झीरावस्थाय श्रीरं दग्न इष प्रलये भूतादीनां तन्मात्रादिक मेणाऽविषेकरूपोऽविभाग इति प्रकृतिसिद्धिः । तदुक्तम् + ८ कारिका से सख्यवन के सिद्धान्त का विचार प्रस्तुत किया गया है | कारिका का अर्थ इस प्रकार है [र्शन के सिद्धान्त ] यस्ता अन्य विद्वान् सम्पूर्ण कार्यो को महत् तरच आदि के क्रम से प्रकृति से उत्पन्न मानते हैं। उत का कहना है - जिन सत्यों से जगत् का विस्तार होता है उन की संख्या पोश है। उन में बलस्य सर्वापेक्षया मुख्य है। जिन में एक तत्व वह है जिसे आत्मा कहा जाता है, वह कूटस्य निविकार नित्य चैतन्यरूप है। वह न किसी का कारण होता है और न किसी का कार्य होता 1 और दूसरा तस्य वह है जिसे प्रकृति कहा जाता है. वह अचेतन होती है और महत् तस्वादि अन्य २३ तत्वों को उत्पन्न करने की शक्ति से सम्पन्न होता है। वह सब का आदि कारण है और उस में मस आदि रूपों में परिणत होने की योग्यता रहता हूँ। उसे मानना अति आवश्यक है क्यों १) उस के अभाव में परिमित एवं यवन जगत की उत्पति नहीं हो सकती, क्योंकि उसे उत्पन्न करनेवाला दूसरा कोई हेतु नहीं है। (२) उसे मानने की आवश्यकता इसलिए भी है जिससे विभिन्न कार्यों में एकरूपता हो सके, क्योंकि कार्यों की उत्पत्ति यदि एक सत्य कारण से न होगी तो कार्यों में कारण के द्वारा एकजातीयता को उपलब्ध न हो सकेगो । यहाँ एकरूपता का कार्य वृद्धि यानी महत से सम्झ हो सकता है कि वह वृद्धि सम्पूर्ण कार्यों का अनुविधान नहीं कर सकती. इसका कणवह सर्वसाधारण नहीं होती और स्वयं अभित्य होती है। 3) प्रकृति मानने का यह भी आधार है कि प्रकृति के अभाव में महत्त्व आदि कारण शक्तियों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि कार शक्तियों की प्रति किसी एक सामान्य आधार द्वारा ही होती है। जैसे पद आदि को करने वाली री सेवा आदि शक्ति वा रूपी आधार के बिना नहीं प्रवृत होतो । ( ४ ) यह मी कारण
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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