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________________ Fथा का टीका-हवी विवेचन ] उक्त मेघागी कार यतिमूलम्-सुदूरमपि गत्वेह विहितामुपपलिपु । का स्वभावागमावन्ने शरणं न प्रतिपयी ? ||११|| ह-शास्त्रे, सरमपि गत्या-बहन्यपि प्रमाणानि परिगृम, उपनिषु मुश्मयुक्तिधु, पिहितासु-प्रकटीकृतामु, को वादी. अन्ते-बाधकतकोपस्थिनी, म्वभावागमो शरणं न प्रनिपग्रते ? स्वपक्षमाधनार्थ बलवश्वेन नाङ्गीकुरुते । मर्व एय तथा प्रतिपद्यत इत्यर्थः । पौटेनाऽहेनुकस्य कार्यस्य स्वभावेन कादाचिकत्वसमर्थनात , मीमांसकेन च यागीयहिंसायामधर्मजनकन्वाभाये 'ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत' इत्यादिवेदवाक्यस्यैव प्रमाणपेनाऽऽअयणादिति ॥१॥ - -. घेसन प्राणी का यह स्वभाव ही है कि वह हिसा आदि के कर्ता रूप में परिणत होकर पुण्यपाप के बन्धन को प्राप्त करसाई और मापत्य अर्थात् हिसा आविस विरत होकर उस मधम से यवतप्रोता. अपने पूर्व प्राप्त कर्मों का क्षय करता एस स्वभाववाव का अबगीकार परमाएक.अन्यथा वादि घटक उत्पादक होते हैं. वेमा आदि परशारण घर का उत्पावन क्यों नही करतेस प्रदन का कोई इश्चित उतरन बियाबामगा। यहां यह माना कि "अमक कारण ही अमककार्यका नमक होता इमरा क्यों नहीं होता? प. प्रश्न ही नहीं हो सकता पयों कि जिस कार्य का जो कारण होता है उसी से उस का जाम होना लोकनित होक नहीं, क्योंकि जसे 'पर्वत में वह किस हेतु में शेयह? इस प्रकार सापक हेतु की मिशासा होती है. बसे हो 'बण्ड आदि में ही घटको कारमता क्यों है?' इस प्रकार सापक हेतुको मिशासा होने में कोई बाधा नहीं है। सापक शेतु को उक्त शिक्षासा क समान, यमन के भी हापक की जिज्ञासा होने से स्वभाव-करूपमा में HARAT होगी यह शहका मही की जा सकती क्योंकि रबमा को आंकाका विषय नहीं बनाया जा सकता, कारण कि उस काम्का का विषय बनाने की पेश करने पर शंका कारणों भी मान्का का विषय हो जान से भरका का जन्म ही बंद हो जायगा ॥१०॥ (स्वभाव और प्रागम अंतिम पारण्य है) इस कारिका में पूर्वकारिका में उबत स्वभाववास और आगममा को अशोकार करने को विवशता बतायो पपी कारिहा का अर्थ इस प्रकार है शास्त्र में कोसो पक्ष का समर्ष करन के लिए भनक प्रमाण पुरा मयुक्तियों का प्रशांत करन पर अब उनके वाषक उपस्थित होते हैं तब किस बावों को स्वभाव और आगम का सहारानीलेना पाता? अर्थात समस्तवादियों को अपने पक्षका मन करन स्वभाव और भागमोहोबलबान प्रमाण के रूप में प्रहण करता पाता।बौनकायको अशेतक मानते ये भी काबाचिक-कासपियोद में ही होने वाला, सालान्तर में होने वाला मानते हैं। काम के सहेतुकस्व पक्ष में तो हेतु के काबाचिरक होने से कार्य का काराणिक होना युक्तिसंगत है, पर
SR No.090418
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 2 3
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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